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मस्जिद की पूर्णता
सन् 1901 ई० में शाहजहाँ बेगम की मृत्यु की पश्चात निर्माण कार्य समाप्त हो गया। सुल्तान जहाँ बेगम जो शाहजहाँ बेगम की पुत्री थी और उनके बाद उत्तराधिकारी भी हुईं। उनके शासनकाल में ताजुल मसाजिद का निर्माण कार्य दोबारा शुरू नहीं हो सका। नवाब हमीदुल्लाह के शासनकाल में कुछ कोशिशें की गईं लेकिन वो भी सफल न हो सकीं। इस तरह ये भव्य इमारत आधी सदी तक अपूर्ण निर्माण हालत में बदलते मौसमों व हालात का शिकार होती रही।
रियासत की विलयनीकरण के पश्चात जब ताजुल मसाजिद दारुल उलुम के अधीन में आई तो फिर इस अपूर्ण इमारत के निर्माण कार्य के भाग्य में खुशियां आईं।और कथित प्रयासों के बाद इसका निर्माण कार्य पूरा हुआ।।
ताजुल मसाजिद की ज़िम्मेदारी मिलने के बाद से ही मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां नदवीं को इसे पूर्ण करने की चिंता हो गई थी। मौलाना ने कई बार कहा कि उनकी नीयत तो पूर्ण निर्माण की है, लेकिन कामयाबी खुदा की मर्ज़ी पर है।
दारूल उलूम की स्थापना से लेकर ताजुल मसाजिद के पूर्ण होने की मुहिम का हाल
मौलाना इमरान साहब ने जब से ताजुल मसाजिद की देखभाल और निगरानी अपने ज़िम्मे ली उसी वक्त से पुराने प्लान को नज़र में रखा और कुछ हालात की वजह से जब मस्जिद के बाहर वक़्फ़िया ज़मीनों और इमारतों को शैक्षणिक उद्देश्य के लिये इस्तेमाल ना कर सके तो मस्जिद की मेहराबदार गैलरियों और दालानों में इस तरह तामीर, सुधार और तब्दीली करते रहे कि एक तरफ़ इस महानतम और गोरव के क़ाबिल इस्लामी यादगार की खूबसूरती पर असर ना पड़े और दूसरी तरफ वह दीनी व इस्लामी इदारा (संस्थान), दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के लिये तमाम ज़रूरी इमारतों का काम देती रहे दूसरी तरफ़ तब्लीग़ी इज्तिमा (वेचारिक समागम सभा) में आने वालों को भी किसी तरह की परेशानी ना हो।
वह तमाम निर्माण कार्य जो 1971 ई० के नियमित निर्माण से पहले हुए
हौज़
यह हौज़ 50 गुणा 50 स्क्वायर फ़िट का है और इसके चारों तरफ साढे़ सात फिट का पक्का चबूतरा है। हौज़ की गहराई 4 फ़िट तक है। हज़ारों रूप्ये के ख़र्च और सैंकड़ों मुख़लिस मुसलमानों की अल्लाह के लिये (निःस्वार्थ) मज़दूरी से एक महीने से कम वक़्त में 1951 ई० के आखि़री दिनों में तीसरे तब्लीग़ी इज्तिमा से बिल्कुल पहले यह हौज़ पूर्ण हो गया।
हौज़ के बीच में एक बिल्लौरी फ़व्वारा लगा दिया गया जिससे हौज़ की रौनक दो गुनी हो गई। इस हौज़ के लिये शाहजहां बेगम ने बिल्लौर की ईंटें मंगवाई थीं लेकिन उनके इंतक़ाल और काम बंद होने की वजह से वह तमाम सामान चोरी हो गया। इस लिये यह हौज़ आम ईंटों से निर्माण हुआ और अब वह फ़व्वारा भी ना रहा।
संगीन मुसल्ले (पत्थर के मुसल्ले)
आंगन के 75 फीसदी हिस्से में गहरे गड्ढे थे। नवाब हमीदउल्लाह ख़ां के दौर की भर्ती के बावजूद आधे से ज़्यादा आंगन बाक़ी था। दारूल उलूम बन जाने के बाद गड्ढों को भरा गया। फिर उसमें पत्थर के मुसल्ले लगाये गये। लगभग आधा आंगन पूर्ण होने की मुहिम से पहले तैयार हो चुका था।
कमरों का निर्माण
मस्जिद के बहुत बड़े आंगन को 12 फिट चौड़ी मेहराबदार गैलरी उत्तर-पूर्व की तरफ से घेरे हुई थी। दक्षिण में गैलरी अपूर्ण थी। इन पूरी बनी हुई गैलरियों को कमरों की शक्ल में बदल दिया गया है। इस निर्माण में 5620 फिट दीवारों की चुनाई हुई।
85 बड़ी चौखटें और दरवाजे़ लगाये गये 116 खिड़कियां लगाई गई और 100 रोशनदान 41 कत्बे लगाये गये। उसके बाद से यह कमरे दारूल उलूम के अलग अलग कामों के लिये इस्तेमाल होते रहे हैं। जैसे मेहमान ख़ाना, दारूल उलूम का दफ्तर, खाने का कमरा, लायब्रेरी और मस्जिद के सामान का स्टोर, होस्टल वगैरह जिसमें लगभग 220 लड़के रह सकते हैं।
फर्श की तकमील
मस्जिद के दर के ऊपरी शानदार बड़े हाल में और पूर्वी दालान में और उत्तर-पूर्वी दालान में कहीं फ़र्श पूर्ण ना था और कहीं बिल्कुल ना था। उसको पूरा किया गया। जिसकी कुल लंबाई 200 फिट और चौड़ाई 12 फिट है।
सीढ़ियां
मस्जिद में आने जाने के लिये सिर्फ तीन दरों के सामने तीन ज़ीने थे लेकिन अब तमाम दरों के सामने सीढ़ियां बना दी गई हैं। साथ ही मस्जिद के उत्तर व दक्षिण में ज़नाना (महिला) मस्जिद और उसके आंगन में आने जाने के लिये भी सीढ़ियां बना दी गई हैं।
गुसलख़ाने और शौचालय
दक्षिणी दिशा में मस्जिद से लगी ज़नाना (महिला) मस्जिद के लिये पांच शौचालय और गुसलख़ाने बनए गये हैं। और मस्जिद के उसी तरफ़ बाहरी इस्तेमाल यानी होस्टल वग़ैरह के लिये चार गुसलख़ाने और पांच शौचालय बनवाये गये।
किचिन
दारूल उलूम के साथ क्योंकि होस्टल भी है और होस्टल में काफी तादाद में छात्र रहते हैं। इसलिये ज़रूरत थी कि उनके खाने और नाशते के प्रबंध के लिये किचिन हो, इसलिये दक्षिण दिशा में मस्जिद के बाहर 2 किचिन बना दिये गये थे।
मस्जिद के मीनार
इस अपूर्ण मस्जिद के अपूर्ण मीनार भी ऊचें नीचे थे। इस सिलसिले में उत्तरी मीनारों को लगभग 40 फिट ऊंचा करके दक्षिणी मीनार के बराबर किया गया, मीनारों का डायमीटर 25 फिट है।
मस्जिद की छतें
मस्जिद का निर्माण 1901 ई० से बंद था और जिसका निर्माण व तकमील (पूर्ण) ना हो उसकी छतें कहां कहां से न टपकती होंगी और बारिश का पानी उसके दरो दीवार में किस तरह से बैठ रहा होगा उसकी तफ़सील यहां बयान करना कठिन है। इस कठिनाई पर किसी तरह क़ाबू पाने के प्रयास किये गये। इस तरह कि छतें डाली गर्इं कि कई दरारें बंद की गर्इं, और कहीं प्लास्टर करवा दिया गया।
मस्जिद का आंगन
मस्जिद का आंगन ऊबड़ खाबड़ और इस्तेमाल के लायक़ नहीं था सैकड़ों ट्रक मलबा डाले जाने और सैकड़ों लोगों की मेहनतों की वजह से वह बड़ी हद तक क़ाबू में आया।
बिजली का प्रबंध
इस लम्बी चौड़ी मस्जिद में बिजली की फिटिंग भी आसान काम नहीं था। लेकिन खुदा की मेहरबानी से वह काम बड़ी हद तक मस्जिद के अंदरूनी हिस्से, आंगन कमरों (जिनमें स्टोर, आफ़िस, डायनिंग हाल, होस्टल, लायब्रेरी वग़ैरह है) और मस्जिद के बाजू वाली ज़नाना मस्जिद के हिस्सों में पूर्ण हो गया। इस तरह इतने बड़े हिस्से में कुल मिलाकर लगभग 3000 फिट बिजली की लाइन है।
पानी का प्रबंध
पहले ताजुल मसाजिद में नल की लाइन सिर्फ बाहरी खुले बाथरूम वाले हौज़ और एक लौहे की टंकी तक थी। यह टंकी दक्षिण दिशा में दालान के पास रखी हुई थी। नल की लाइन उबैदिया स्कूल वाली लाइन से आती थी। और हमेशा पानी की कमी रहती थी। अब खुदा के फज़्लो-करम से ज़्यादा चौड़ी लाइन का कनेक्शन सीधा मेन लाइन से मिल चुका है और बड़ी हद तक ज़रूरत के लिये पानी मिल जाता है। इस सिलसिले में अलग-अलग साइज़ का लगभग 526 फिट पाइप लगा है।
यह सब काम 1960 ई० तक हुए थे। 1971 ई० से पहले जबकि ताजुल मसाजिद को पूर्ण करने की मुहिम नियमित शुरू हुई, कुछ और काम इस तरह से हुए।
1- उत्तर दिशा में ज़नाना (महिला) मस्जिद के एक बड़े दालान का फ़र्श पूर्ण कराया गया।
2- बीच की मेहराब के सामने संगे-मरमर की सीढ़ियां बनवाई गईं।
3- बाक़ी की मेहराबों के सामने पत्थर की सीढ़ियां बनवाई गईं।
4- मस्जिद के आंगन में अस्थाई साया करने के लिये लौहे के पाइप लगाकर उनपर लोहे का तार बांधा गया जिससे कि इज्तिमा के समय में उन पर कपड़ा वगै़रह का साया किया जा सके।
नये निर्माण के प्रयासों की शुरूआत
ताजुल मसाजिद को पूर्ण करने की तमन्ना मौलाना इमरान ख़ां साहब के दिल में यहां की ज़िम्मेदारी संभालने के पहले दिन से ही थी। इसलिये जब जब मौका मिला कुछ ना कुछ निर्माण होता रहा। जैसा पहले लिखा जा चुका है।
उत्तरी दालान के निर्माण का प्लान
10 दिसंबर 1966 ई० को हुई आधिकारिक परिषद की मीटिंग में दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के अध्यक्ष की तरफ़ से उत्तरी दालान के निर्माण का प्रस्ताव रखा गया। तमाम बातों पर ग़ौर करने और कुछ और बेहतर प्रस्ताव तैयार करने के लिये आधिकारिक परिषद के सदस्यों की एक कमेटी बनाने की मंजूरी दी गई। और तय किया गया कि यह कमेटी मामलात के सभी पहलूओं पर ग़ौर करके ज़रूरत के मुताबिक़ निर्माण कला के माहिरों से सलाह करके खुदा के भरोसे पर काम शुरू कर दे साथ ही बनाने की अनुमति और पैसे का इंतेजाम करना भी इस कमेटी के ज़िम्मे किया गया।
फिलहाल यह कमेटी उस पैसे से काम शुरू कर दे जो एक साहब ने इसी काम के लिये ख़ास तौर से दिये थे। बाक़ी ख़र्च के इंतेजाम के लिये कुछ और प्रयास किये जायें और कमेटी अपने काम की रिपोर्ट आधिकारिक परिषद को देती रहे।
इस कमेटी में जो लोग शामिल थे उनके नाम है
मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब, मौलाना सैयद हशमत अली साहब, अब्दुल हमीद ख़ां साहब ओवर सीर, मौलाना सैयद मंजूर हुसैन साहब सरोश, जनाब अब्दुल रऊफ ख़ां साहब और जनाब इफ़्तेख़ार अहमद साहब।
आधिकारिक परिषद की मीटिंग में उत्तरी दालान की बात आ चुकी थी। छत की ख़राबी का लगातार बढ़ना बहुत हैरत और परेशानी की बात थी। निर्माण कला के माहिर और ख़ासतौर पर आधिकारिक परिषद के सदस्य अब्दुल हमीद साहब ओवर सीर का भी यही ख़्याल था कि छत की हालत ख़राब है इसलिये सबसे पहले उस पर ध्यान दिया जाये।
मौलाना इमरान साहब फरमाते हैं कि अक्टूबर 1967 ई० में जब हज़रत साहब ने पहली बार मुझसे मुख़ातिब होकर इरशाद फ़रमाया कि मौलवी साहब ताजुल मसाजिद की तरफ़ आप तवज्जो क्यों नहीं करते ? तो मैने अर्ज़ किया कि मै क्या कर सकता हूँ ? जिस काम को रियासत के हुक्मरां नहीं कर सके, उसको करने की हिम्मत इस ज़माने में कौन करे और कैसे करे ? फ़रमाया आदमी ही इन कामों को करते हैं, हिम्मत कीजिये, हिम्मत क्यों हारते हैं ?
यही बात लगभग 12 अगस्त 1969 ई० की मीटिंग में मौलाना इमरान ख़ां ने लिखी है। ताजुल मसाजिद का निर्माण और पूर्णता बेशक हमारा मक़सद था। लेकिन पैसे और सामान की कमी की वजह से बस उम्मीद और तमन्ना ही थी। हुआ यह कि कई साल बाद हज़रत मोहम्मद याकूब साहब मुजद्दिदी ने अचानक इरशाद फ़रमाया कि, अरे मौलवी साहब, यह ताजुल मसाजिद कब तक यूं ही पड़ी रहेगी ? इसका निर्माण क्यों नहीं करते ? मैं ने ख़ामोशी से यह सोचा कि हजरत साहब की बात को कैसे टाला जाये और दूसरी तरफ यह भी फिक्र थी कि, इस मुहिम को कैसे अंजाम दिया जाये ?
मौलाना ने फ़रमाया ताजुल मसाजिद की फ़िक्र मुझ पर सवार थी और मस्जिद बनाने के लिये कोई चन्दा नहीं देता था। लेकिन दारूल उलूम खुले हुए 20 साल हो चुके थे और लोगों के चन्दे पर ही दारूल उलूम बराबर चल रहा था। ताजुल मसाजिद के लिये चन्दा मांगो तो लोग कहते कि मौलवी साहब दुनिया के सारे काम हो सकते हैं। लेकिन ताजुल मसाजिद का निर्माण नहीं हो सकता। इसलिये जो चीज़ नहीं हो सकती उसके निर्माण के लिये चन्दा देने से क्या हासिल ? दो हज़ार, पांच हज़ार का चन्दा भी क़ाफी नहीं है। क्योंकि ज़रूरत लाखों की है। यही बात सारी दुनिया में भी मशहूर थी जिसका जिक्र खुद कैनेडा में रहने वाले भोपाल के बाशिंदे जनाब इनाम उल्लाह मक्की साहब ने किया है। जब उनसे मौलाना ने कहा कि ताजुल मसाजिद पूर्ण हो रही है, उसके लिये चन्दा दो तो उन्होंने कहा कि ताजुल मसाजिद तो पूर्ण हो ही नहीं सकती। ना मुमकिन है। बड़ी कठिनाई से उनको इस बात का यक़ीन आया, उनसे कहा गया कि आप खुद आकर देखें।
यह बात हज़रत साहब को भी बताई गई। उन्होंने बड़े ध्यान से सारी बातें सुनीं और फ़रमाया कि ऐसा करो कि भोपाल और हिंदुस्तान को छोड़ो, तुम तो कहीं बाहर चले जाओ और शुरू में लाख दो लाख चन्दा ले आओ भोपाल के लोग बहतु मायूस हैं। उसके बाद देखो अल्लाह तआला किस तरह ख़ज़ाने खोलता है।
मौलाना फ़रमाते हैं कि मैं ने हज़रत साहब से अर्ज़ किया कि कई दिनों से यह ख़्याल मेरे दिमाग मे भी आ रहा है कि बाहर चला जाऊँ। वहां जानने वाले लोग भी हैं।
ताजुल मसाजिद निर्माण के बाक़ी काम
जब यह तय हुआ कि मस्जिद पूर्ण करने के अभियान को शुरू करना है तो बाक़ायदा प्रोग्राम बनाया गया और पूर्णता के नज़रिये से सबसे ज्यादा अहम और ज़रूरी काम जो तय किये गये उनकी तफ़सील और बजट इस तरह है।
1 | तमाम छतों का पुराना प्लास्टर निकाल कर (जो बेकार हो चुका है) चूने या गिट्टी का पूरा प्लास्टर डाला जाये। | 2 लाख |
2 | मस्जिद के गुंबद पूर्ण कराये जायें ताकि एक ज़रूरी काम पूरा हो और बरसाती पानी से मस्जिद को बचाया जाये। | 20 लाख |
3 | ऊपरी हिस्से में बेईमान ठेकेदारों ने जो छत डाली है, गिरने पर है। उसे बदला जाये। | 3 लाख |
4 | उत्तरी दालान का बड़ा हिस्सा (22 दरों वाला) अपूर्ण है। उसका निर्माण कराया जाये। | 3 लाख |
5 | पूर्व में मस्जिद का शानदार मर्कज़ी (केन्द्रीय) दरवाज़ा जो 70 साल से अधूरा है। उसे पूर्ण कराया जाये। | 9 लाख |
6 | वह गड्डा जो लगभग 100 फिट लम्बा 40 फिट चौड़ा आरै 15 फिट गहरा है। वहां तहख़ाना बनाया जाये। | 50 हजार |
7 | अंदरूनी निर्माण की पूर्णता के साथ साथ इस लंबी चौड़ी मस्जिद के पानी की निकासी के लिये भी रास्ते बनाये जायें। | 50 हजार |
8 | मस्जिद के आंगन में पत्थर के मुसल्ले लगा दिये जायें ताकि पूरा आंगन नमाज़ अदा करने लायक़ हो जाये। | 1 लाख |
9 | मस्जिद के मीनारों को पूर्ण किया जाये ताकि उन मीनारों से बरसाती पानी बहना बंद हो। | 30 लाख |
10 | उत्तरी सीढ़ियां तालाब तक बनाई जायें। | 5 लाख |
11 | ऊपरी ख़र्च | 1 लाख |
कुल रक़म लगभग | 75 लाख |