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संस्थापक

दारुल उलूम के संस्थापक मौलाना मोहम्मद इमरान खान नदवी अजहरी

परिवार

मौलाना मोहम्मद इमरान खान पठान वंश के थे। आपके परदादा नूर मोहम्मद साहब दिल्ली में पवित्र कुरान की शिक्षा देते थे और हजरत अहमद सईद साहब ने उनका पालन पोषण किया था। नूर मोहम्मद साहब के पुरखे सीमा से दिल्ली आ कर रहे थे।

1857 ई० की क्रांति में नूर मोहम्मद साहब सपरिवार भीखनपुर पहुंचे। वहां के नवाब ने आपका स्वागत किया। कुछ समय पश्चात जल भोजन का आकर्षण दारुल इकबाल भोपाल खींच लाया। भोपाल रियासत में ज्ञान व ज्ञानियों को बहुत सम्मान दिया जाता था। उनका स्वागत किया गया और बहुत मान सम्मान की दृष्टि से देखा गया। विशेष रुप से आपके दो निर्दोष बालकों की अल्पायु में क़ुरान कंठस्थ होने और नियमानुसार क़ुरान पाठ की विशेषज्ञता से लोग बहुत प्रभावित हुए। वरिष्ठ सुपुत्र हाफिज क़ारी मोहम्मद मेहमूद साहब मस्जिदों और छात्रवृति के प्रबंधक हुए और अपनी सत्यवादिता हेतु प्रसिद्ध हुए।

 

कनिष्ठ सुपुत्र मौलाना मोहम्मद इमरान खान नदवी अजहरी मरहूम के दादा मुफ्ती अब्दुल हादी साहब महान ज्ञानी थे क़ुरान पाठ की कला में उनकी विशेषज्ञता सर्वव्यापी थी क़ारी अब्दुर रहमान पानीपति से उनका शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है जिसमें क़ारी पानीपति साहब ने उनको अपना प्रमाण पत्र भेंट किया। आपने “शातबिया” कुरान पाठ की कला की पुस्तक का अनुवाद “हिदायतुल कुर्रा” शीर्षक से किया। आपके अरबी उद्बोधनों का संकलन जो मुद्रित ना हो सका उसका दुख है। आपने रियासत के विभिन्न पदों को शोभायमान किया और 26 अगस्त 1919 ई० को रियासत के मुफ्ती नियुक्त हुए और आयु के अंतिम क्षण तक इस पद पर कार्यरत रहे। अंत में हज की इच्छा उत्पन्न हुई और अस्वस्थता के पश्चात भी 11 अप्रैल 1929 ई० को मक्का हेतु प्रस्थान किया और 10 मई 1929 ई० (29 जीकादा 1347 हिजरी) को वहीं देहांत हुआ और हजरत खदीजा तुल कुबरा के चरणों की और जन्नतुल मुअल्ला में दफन हुए।

 

स्वर्गवासी मौलाना के पिताजी हाफिज मोहम्मद इलियास साहब बड़े ज्ञानी और महान व्यवस्थापक व चिंतक थे। आप 1 जून 1924 ई० को अपने चाचा क़ारी हाफिज महमूद साहब की मृत्यु के पश्चात मस्जिदों व छात्रवृति के प्रबंधक नियुक्त हुए। नवाब हमीदुल्लाह खान ने 26 अगस्त 1931 ई० को उनकी व्यवस्थात्मक प्रतिभाओं का सम्मान करते हुए “इस्लाम हेतु दान संपत्ति” का विभाग भी उन को सौंप दिया। आपने सूझबूझ तथा विशिष्ट प्रतिभा के बल पर उन विभागों में महत्वपूर्ण सुधार किए तथा प्रशंसा व प्रसिद्धि के साथ 1940 ई० में सेवानिवृत्त हुए।

 

आपने 2 दिसंबर 1941 ई० (12 जीकादा 1360 हिजरी) को लखनऊ में उनके देहांत के पश्चात उनकी वसीयत के अनुसार नदवातुल उलेमा के प्रबंधक डॉक्टर अब्दुल अली साहब ने जनाजे की नमाज पढ़ाई और डाली गंज के कब्रिस्तान में सुपुर्द ए खाक हुए।

 

स्वर्गवासी मौलाना में जो अद्वितीय व्यवस्थात्मक प्रतिभाएं सामने आईं वह अपने पिताजी और स्वर्गवासी मौलाना मसूद अली साहब पूर्व प्रबंधक दारुल मुसन्निफीन के प्रशिक्षण का फल है।

 

स्वर्गवासी मौलाना के चाचा और ससुर हाफिज मोहम्मद इदरीस खान साहब अपने स्वर्गीय पिता के बाद जामा मस्जिद के उद्बोधक हुए और अपने वरिष्ठ भाई हाफिज मोहम्मद इलियास के देहांत के पश्चात मस्जिदों, छात्रवृत्तियो और इस्लाम हेतु दान संपत्तियों के प्रबंधक नियुक्त हुए। आपका देहांत 23 दिसंबर 1948 ई० (20 सफर 1368 हिजरी) को हुआ।

मौलाना का जन्म

मौलाना मोहम्मद इमरान खान साहब ने 13 अगस्त 1913 ई० को भोपाल में जन्म लिया पिता श्री ने मोहम्मद इमरान नाम रखा बाल्यकाल ही में कुरान कंठस्थ किया और 9 वर्ष की आयु में मस्जिद शकूर खान (मध्य प्रदेश का विश्व प्रसिद्ध तबलीगी केंद्र) में प्रथम मेहराब सुनाई। आरंभिक शिक्षा पहले जहांगीरिया शाला में तत्पश्चात एलेक्जेंड्रिया स्कूल में हुई। उच्च धार्मिक शिक्षा हेतु दारुल उलूम नदवातुल उलेमा का चयन हुआ। स्वर्गवासी मौलाना का प्रवेश नदवातुल उलेमा में 1 जून 1926 ई० को हुआ। आप अरबी कक्षा द्वितीय में प्रविष्ट हुए उस दिन से लेकर 32 वर्ष 1958 ई० तक निरंतर नदवा से कार्मिक संबंध रहा।

 

आपने नदवा का उत्तम काल पाया आपके समय काल में नवाब हसन अली खां साहब सुपुत्र नवाब सिद्दीक हसन खां नदवा के प्रबंधक, सैयद सुलेमान नदवी सचिव तथा मौलाना हैदर हसन खां व्यवस्थापक थे।

 

आरंभ ही से आपकी शैक्षिक तथा व्यवस्था संबंधी प्रतिभा सामने आने लगी थी अभी नदवा में 1 वर्ष भी नहीं व्यतीत हुआ था कि आपने “अल हातिफ” नामक हस्तलिखित पत्रिका प्रकाशित की और 1935 ई० में स्नातकोत्तर के अंतिम वर्ष में पहुंचे तो “अल मुन्क़लिब” नामक एक और हस्तलिखित पत्रिका आपके संपादन में प्रकाशित हुई।

 

आप दो वर्ष तक छात्र संघ के अध्यक्ष भी रहे और आपने छात्रों व शिक्षकों के बीच अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त की और आपकी उल्लेखनीय प्रतिभाओं को सबने स्वीकारोक्ति प्रदान की।

 

1933 ई० (1351 हिजरी) में आपने स्नातकोत्तर की उपाधि प्रथम श्रेणी तथा प्रथम स्थान के साथ प्राप्त की।

 

आपकी गैर सामान्य वयवस्थात्मक तथा शैक्षिक प्रतिभाओं को देखते हुए 6 नवंबर 1933 ई० को नदवे का प्रबंधक बना दिया गया। उस समय आपकी आयु केवल 20 वर्ष थी।

 

रियासत भोपाल की “उबेदुल्लाह खां छात्रवृति” के माध्यम से आपने अधिक उच्च शिक्षा हेतु 16 अक्टूबर 1937 ई० को काहिरा (मिस्र) प्रस्थान किया। जहाँ आपको इस्लामी जगत के विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय “जामिआ अज़हर” के अरबी साहित्य के विशिष्ट विभाग में प्रवेश मिला तथा 1939 ई० में आपने प्रथम श्रेणी व प्रथम स्थान के साथ इस परीक्षा को उत्तीर्ण किया।

 

आप वह प्रथम भारतीय छात्र हैं जिसने यह उपाधि प्राप्त की इससे पूर्व भारतीय छात्रों को “आलिमियतुल गुरबा” नामक एक डिप्लोमा कोर्स में प्रवेश दिया जाता था ऐसे में मौलाना की सफलता किसी महान कार्य से कम न थी। मिस्र के सभी समाचार पत्रों ने यह समाचार मौलाना के चित्र के साथ प्रकाशित किया और प्रशंसनीय वाक्य भी लिखे। भारत के अधिकतर समाचार पत्रों ने इस समाचार को बहुत कुशल ढंग से प्रकाशित किया यहाँ तक कि हज़रत मौलाना सैय्यद सुलेमान नदवी ने “मआरिफ़” की विशेष सम्पादकीय टिप्पणियों में इस अभूतपूर्व सफलता को सम्मिलित किया। जब मौलाना वापस भारत पधारे तो लखनऊ, दिल्ली और भोपाल में भव्य स्वागत किया गया। भोपाल में उनको अनेक बड़े पदों का प्रस्ताव मिला लेकिन आपने “नदवातुल उलेमा” की सेवा को प्राथमिकता दी और आप एक नए उत्साह व निश्चयों के साथ फिर से नदवा से सम्बन्ध हो गए।

 

नदवा के प्रबंधक मौलाना हैदर हसन खां को रियासत “टोंक” वापस बुलाये जाने के पश्चात् दिवंगत मौलाना को एक फ़रवरी 1941 ई० को नदवे का कार्यकारी प्रबंधक नियुक्त कर दिया गया! फिर 26 अप्रैल 1942 ई० को प्रबंध समिति के प्रस्ताव के अनुसार आप प्रबंधक हुए और 1958 ई० तक उस पद पर कार्यरत रहे!

 

देश विभाजन के पश्चात परिस्थितियों ने करवट ली और विशेष रूप से रियासतों के लिए बड़ी समस्याएं उत्पन्न हो गयीं जहाँ मुस्लिम शासक थे और विशेष रूप से भोपाल रियासत के लिए जहाँ सारे धार्मिक, शैक्षिक और इस्लामी बल्कि अन्य धर्मों के कार्य भी रियासत के बजट से होते थे। “जमात हिदायतुल मुस्लिमीन” जो के स्थानीय तब्लीगी जमात का आरंभिक नाम था और जिसके हज़रत मौलाना इमरान खां प्रमुख थे। साथ ही मौलाना जो इस्लामी धार्मिक ज्ञान को मुसलमानो हेतु अनिवार्य समझते थे और उसको बढ़ावा देने के प्रयास करते रहते थे और उनके समक्ष एक ऐसे प्रशिक्षण स्थल की स्थापना भी थी जिसमें शिक्षा के साथ साथ तब्लीग़ के अभ्यास की व्यवस्था भी हो। यह सारे उद्देश्य एक जून 1949 ई० को रियासत की समाप्ति के बाद पूरे होते नज़र नहीं आ रहे थे। परिस्थितियां यह थीं कि मार्च 1950 ई० में शासन की और से घोषणा की गयी की अब “जामिया अहमदिया” में धार्मिक शिक्षा नहीं होगी बल्कि यह केवल एक धर्मनिरपेक्ष शाला होगी। घोषणा के पश्चात मौलाना की बेचैनी बढ़ गई। उस वक़्त अल्लामा सैय्यद सुलेमान नदवी भोपाल में क़ाज़ी थे दिवंगत मौलाना ने उनसे निवेदन किया कि बदली परिस्थितियों में वह एक धार्मिक संस्था स्थापित करना चाहते हैं। सैय्यद साहब ने इस विचार पर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की और अप्रैल 1950 ई० में जामा मस्जिद में एक जलसा हुआ जिसमें सैय्यद साहब ने अपने उद्बोधन से दारुल उलूम का लगभग उदघाटन कर दिया। दूसरे दिन से मस्जिद शकूर खां में यह मदरसा स्थापित हो गया 3 महीना पश्चात 20 जुलाई 1950 ई० को यह मदरसा दारुल उलूम ताजुल मसाजिद में विस्थापित हो गया जहाँ इसका फिर विधिवत उदघाटन हुआ और नामकरण दारुल उलूम ताजुल मसाजिद रखा गया। दारुल उलूम विस्थापित होने के पश्चात थोड़े थोड़े निर्माण कार्य होते रहे 1968 ई० में हज़रत पीर नन्ने मियां ने जो दिवंगत मौलाना के गुरु भी थे बार बार मस्जिद के निर्माण को पूर्ण करने पर जोर दिया जिस हेतु मौलाना की केन्या यात्रा हुई फिर 1976 ई० में इंग्लैंड और 1980 ई० में अमेरिका की यात्राएं भी कीं और उस समय में 70-75 लाख रु की भारी राशि एकत्रित करके ताजुल मसाजिद के भव्य कार्य को पूर्णता प्रदान की।

 

पूर्ण जीवन निरंतर संघर्ष में व्यतीत करने का प्रभाव यह हुआ की स्वास्थ दिन प्रतिदिन बिगड़ने लगा कई रोगों में घिर गए। एंजाइना की पीड़ा भी थी लेकिन अपने गुरु की उस सीख पर सदैव अडिग रहे कि “मौलवी साहब पलंग न पकड़ना वरना वह तुमको पकड़ लेगा” अंतिम दिवस भी देहांत से 20 मिनट पूर्व दारुल उलूम और स्वयं आपके निजी वाहन चालक अब्दुल रशीद गाड़ी ले कर आ चुके थे कि अचानक हृदय घात होने से शनिवार 18 अक्टूबर 1986 ई० (13 सफर 1407 हि०) प्रातः 10:30 बजे आपका देहांत हुआ। जनाज़ा रात 9 बजे मस्जिद शकूर खां से आरंभ हुआ, जनाज़े की नमाज़ लाल परेड मैदान पर अदा की गई जिसमें लगभग एक लाख पचास हज़ार लोग सम्मिलित हुए। फिर हज़रत पीर नन्ने मियां के निजी कब्रिस्तान में उनके चरणों में दफ़न किया गया।

जीवन के महत्वपूर्ण कार्य

दिवंगत मौलाना के व्यस्त जीवन की एक झलक ऊपर आ गई विवरण हेतु एक अत्यधिक मोटी पुस्तक की आवश्यकता है अपितु यहाँ संक्षेप में कुछ बातों की चर्चा की जाती हे:

 

नदवा

नदवा से प्रेम और उसके लिए प्रत्येक वस्तु का त्याग, आपने अल्लामा सैय्यद सुलेमान नदवी से सारा जीवन नदवा की सेवा का जो प्रण किया उसको संपूर्ण जीवन काल में निभाते रहे। आप नदवा अभियान के ध्वज वाहक थे और अल्लामा शिब्ली के विचारों से पूर्ण रूप से सहमत थे। 1947 ई० के कठिन समय में नदवे की नांव को सकुशल तट तक पार लगाने में स्व० मौलाना के प्रयासों की महत्वपूर्ण भूमिका है। जब आप लखनऊ से भोपाल आये तो अधिकांश व्यक्तियों को इस निश्चय से दुख हुआ लेकिन ईश्वर की इच्छा में जो भलाई छुपी थी वह इस प्रकार प्रकट हुई कि मौलाना के कारण मध्य भारत में एक भव्य धार्मिक शिक्षा का केंद्र स्थापित हो गया। अर्थात मध्य भारत में आप ने एक और नदवा स्थापित कर दिया और इस प्रकार नदवा अभियान से वास्तव में कभी पृथक नहीं हुए।

 

दारुल उलूम ताजुल मसाजिद के लिए उनकी सेवाओं का विवरण हमारी वेबसाइट के इतिहास शीर्षक वाले लिंक में देखा जा सकता है।

 

ताजुल मसाजिद का निर्माण

ताजुल मसाजिद भारत ही नहीं विश्व की सबसे भव्य मस्जिदों में से एक है। जो विषम परिस्थितियों के कारण पूर्ण नहीं हो पाई थी और उसके पूर्ण होने की कोई सम्भावना भी नहीं थी। क्योंकि इस के लिए हिम्मत, धन और समय सब की असामान्य रूप से आवश्यकता थी अपितु जिस प्रकार से हज़रत मौलाना ने इसको पूर्णता तक पहुंचाया उसके लिए संक्षेप संभव नहीं है। अधिक विवरण देखने हेतु हमारे वेबसाइट का इतिहास शीर्षक लिंक देखा जाये।

 

तब्लीगी जमात के लिए आमंत्रण व प्रचार के प्रयास

आज सम्पूर्ण विश्व में तब्लीगी जमात के प्रयास परिचय से प्रथक हैं अपितु यह कम ही लोगों को ज्ञान होगा कि एक सीमित क्षेत्र से इन प्रयासों को सम्पूर्ण मध्य भारत में प्रचारित करने का कार्य मौलाना के प्रयासों का परिणाम है अपितु यह कहना भी अनुचित न होगा की भोपाल से ही यह आमंत्रण व प्रचार विश्व पटल पर प्रकट हुआ। हज़रत मौलाना का संबंध जमात के संस्थापक हज़रत मौलाना इल्यास (रह०) से विशेष था मौलाना मुहम्मद युसुफ संस्थापक के पुत्र आपके निकट साथी थे। जमात के अन्य वरिष्ठ जनों से हज़रत मौलाना का विशेष संबंध रहा।

 

मौलाना की शैक्षिक प्रतिभा

सामान्य रूप से आपकी चर्चा में कार्मिक उपलब्धियों का भाग सर्वोपरि रहता है अपितु यह वास्तविकता अपने स्थान पर अडिग है कि मौलाना का स्वभाव शुद्ध शैक्षिक था और आपकी लेखनी में शोध व साहित्यिक शैली बड़ी सरलता से देखी जा सकती हे। छात्र जीवन में क़लम से रिश्ते का संबंध ऊपर आ चुका है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार अब्दुल माजिद दरियाबादी का ध्यान आपकी और आपके छात्र जीवन के एक लेख के माध्यम से ही आकर्षित हुआ। यह अवश्य है कि मौलाना ने अपनी व्यस्तताओं के कारण कम लिखा है लेकिन जो लिखा वह साहित्यिक व शैक्षिक रूप से उच्च स्तर का है। “अन नदवा” तथा अन्य पत्रिकाओं में आपके लेख प्रकाशित हुए। दारुल उलूम ताजुल मसाजिद की प्रवक्ता पत्रिका “निशाने मंज़िल” में आपके लेख व उद्बोधन अधिकतर प्रकाशित हुए उन सब को वेबसाइट पर लाया जायेगा। आप के लेखों का एक संकलन 1991 ई० में प्रकाशित हो चुका है। इसी प्रकार आपके पत्रों के भी चार खंड प्रकाशित हो चुके हैं। जो पूरे एक काल के इतिहास की भांति हैं। यह बात अवश्य ही चर्चा योग्य है कि आपके लेखों की भाषा इतनी सादा व सरल है जो पाठक के हृदय व मस्तिष्क पर प्रभाव डालती है आपके लेखों को एकत्र करना और प्रकाशित करना यह भी एक अति आवश्यक कार्य है। पवित्रतम अल्लाह की सहायता से इंशाअल्लाह यह कार्य भी सम्पूर्ण होगा।