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इतिहास
सूचकांक
- भारत में इस्लामी मदरसों का महत्व
- नदवातुल उलेमा का अभियान
- भोपाल
- भोपाल रियासत का शाहजहानी दौर
- शाहजहानी दौर के निर्माण
- ताजुल मसाजिद की जगह पर ईदगाह
- शाहजहां बेगम के दौर में निर्माण व्यवस्था
- नवाब हमीदुल्लाह की दिलचस्पी
- ताजुल मसाजिद का पूर्ण होना
- नये निर्माण के प्रयासों की शुरूआत
- पुरानी डी पी आई की जगह हासिल करना
- दारूल-उलूम ताजुल मसाजिद की स्थापना और मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब
- अहम कान्फ्रेंसें
- दारूल उलूम ताजुल मसाजिद की शैक्षणिक सेवाएं
- तबलीग़
भारत में इस्लामी मदरसों का महत्व
इस्लाम और अरबी भाषा का चौली दामन का साथ है। पवित्र कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद (सल०) की जीवनी, इस्लामी शरिया कानून, इतिहास और तमाम इस्लामी जानकारियां आदि मूलरूप से अरबी भाषा में ही हैं।
इस्लामी विद्वान अल्लामा तैमिया (रह०) ने कहा कि अरबी भाषा का संबंध धर्म और शास्त्रों से है। धर्म को जानना, कुरआन और हज़रत मोहम्मद (सल०) के जीवन और उनके संदेश को समझना बहुत ज़रूरी है और अरबी भाषा के ज्ञान के बिना, यह सबकुछ पूर्ण रूप से समझा नहीं जा सकता। यह ज्ञान इस्लाम का सही पालन करने के लिये भी बहुत ज़रूरी है। इसका सीखना समझना हर एक का कर्तव्य है। और कम से कम समाज में कुछ लोगों को यह ज्ञान प्राप्त करना बहुत ज़रूरी है।
इस्लाम जब इस देश में आया तो उसी समय यहां के लोगों ने इस बात को समझ लिया। इसी कारण उन्होंने अरबी भाषा को सीखा और तन मन धन इस भाषा पर न्यौछावर किया और इसमें कौशल प्राप्त किया। विशेष रूप से आलिमों ने अरबी सीखी, जबकि यह भाषा यहां की मातृभाषा नहीं थी।
19 वीं सदी में जब मुसलमानों के पास शासन नहीं रहा तो सबसे बड़ी समस्या जो उनके सामने थी, वह थी उनके धर्म की रक्षा और सुरक्षा। इसके लिये उनके सामने एक ही रास्ता था कि देश में हर तरफ इस्लामी मदरसों का जाल बिछा दिया जाये, ताकि युवा पीढ़ी इस्लामी ज्ञान और शिक्षा से वंचित ना रहे। इस सिलसिले में आलिमों ने निःस्वार्थ भाव से ज़र्बदस्त काम किया। हमेशा आगे रहकर हर तरह की पेरशानियों का सामना किया और कुर्बानी दी। इस तरह युवा पीढ़ी में अरबी भाषा सीखने का शैक़ पैदा हुआ, जबकि वह यह भी जानते थे कि अरबी को सीखकर ना तो सरक़ारी नौकरी मिल सकेगी और ना ही वह खुशहाल जीवन गुज़ार सकेंगे।
बल्कि वह अच्छी तरह समझते थे कि इस शिक्षा को ग्रहण करने के पश्चात शायद वह आर्थिक तंगी के शिकार रहेंगे।
आज जो हिन्दुस्तान के चप्पे चप्पे पर दीनी मदरसे आपको नज़र आ रहे हैं दर असल यही मदरसे हिन्दुस्तान में इस्लाम के बाक़ी रहने की ज़मानत हैं। इन मदरसों ने मज़हबी और दीनी हिसाब से सराहनीय तथा उत्तम सेवाएं अन्जाम दीं और दे रहे हैं।
नदवातुल उलेमा का अभियान
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में, नदवातुल उलेमा का अभियान देश के प्रमुख विद्वानों और विचारकों के नेतृत्व में शुरू हुआ। जिसका एक व्यावहारिक रूप दारुल उलूम के रूप में प्रकट हुआ।
जिसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसा पाठ्यक्रम विकसित करना था जो आधुनिक विज्ञान और इस्लामी और अरबी विज्ञान के बीच एक सेतु का काम करे। धार्मिक विद्वानों और आधुनिक शिक्षित वर्ग के बीच पैदा होती जा रही खाई को पाट दे। प्राचीन लेकिन कल्याणी और आधुनिक हितैषी को मिलाने का कार्य दे। सिद्धांतों, लक्ष्यों और उद्देश्यों से समझौता किए बिना अधीनस्थ नियम, मुद्दे और कार्यो में विस्तार और नरमी पेदा करे।
1894 ई० में नदवातुल उलेमा का एक जलसा आयोजित किया गया जिसमें हिन्दुस्तान के हर तबक़े के बड़े आलिम शामिल हुए ताकि मुसलमानों की बदहाली का जायज़ा लिया जाये और ईसाई मिशनरियों व पश्चमी सभ्यता के हमलों की वजह से जो बुराईयां और ख़राबियां समाज में पैदा हो रही हैं उनको दूर किया जा सके।
नदवातुल उलेमा के पाठ्यक्रम सुधार के प्रयास सफल हुऐ। आज हिन्दुस्तान के मुसलमानों के इतिहास और संस्कृति का हर छात्र इन प्रयासों के परिणामों के बारे में अच्छी तरह जानता है। और भारत व अरब में नदवातुल उलेमा अभियान की सेवाओं के बारे में वहां के आलिम फाज़िल बेहतर राय रखते हैं।
मध्य भारत में स्थापित दारूल उलूम ताजुल मसाजिद उसी संघर्ष और प्रयास की यादगार है। यह दारूल उलूम नदवातुल उलेमा की तर्ज़ पर चल रहा है। यहाँ का पाठ्यक्रम तथा शिक्षा पद्धति उसी तरह से जारी है।
भोपाल
भोपाल मध्य भारत की एक छोटी सी मुस्लिम रियासत थी। जिसे नवाब दोस्त मोहम्मद ख़ां ने 1725 ई० में बसाया। नवाब साहब एक इल्म दोस्त (ज्ञान मित्र) खुले और साफ़ दिल और इंसाफ़ पर क़ायम रहने वाले इंसान थे। प्रजा के साथ धर्म और जाति में फ़र्क़ किये बिना मामला करते थे। उनके बाद वाले शासकों ने भी नवाब साहब के ही बेहतर तरीक़ों से शासन किया।
भोपाल रियासत के आखि़री नवाब हमीदुल्लाह खां के ज़माने में भोपाल रियासत भारतीय संघ में मिल गई। इससे पहले रियासत में इस्लामी क़ानून जारी था। दारूल क़जा़, औक़ाफ और इस्लामी मदरसे थे। और वह सारी विशेषताएं पाई जाती थीं जो एक इस्लामी रियासत की ख़ास पहचान होती हैं। भोपाल एक छोटी रियासत होने के बावजूद अपनी शिक्षा, साहित्य और सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण जाना जाता था। यह रियासत हमेशा बेहतरीन शिक्षकों, विश्वप्रसिद्ध आलिमों, माहिर फ़नकारों, नेक इंसानों और सूफ़ी बुजुर्गों का केन्द्र रही। इसका दिल ज्ञान और कर्म का ख़जाना, इसकी ज़बान नेकी और नेक चलनी का उदाहरण, इसकी ज़मीन ज्ञान का समंदर और इसकी मस्जिदें पैग़ंबरी ज्ञान के विद्यार्थिंयों का संस्थान रहीं इसकी विशेषताओं को देखकर कई क्षेत्रों से आलिम और फनकार अपना क्षेत्र छोड़कर भोपाल रियासत में आते रहे और इस सरज़मीन को आबाद करते रहे।
भोपाल रियासत का शाहजहानी दौर
जिस मस्जिद में दारूल उलूम ताजुल मसाजिद स्थापित है। उसकी बुनियाद नवाब शाहजहां बेगम ने रखी थी। उन्होनें 16 नवंबर 1868 ई० से अपनी मृत्यु 16 जून 1901 ई० तक भोपाल पर शासन किया। वह एक बुलंद हौसले वाली महिला थीं उनके दौर में भोपाल ने इल्मो-अदब के मैदान में खूब तरक़्क़ी की। क़ानून का विभाग कायम हुआ। अम्न-शांति और जन सुरक्षा की व्यवस्था हुई। स्वास्थ्य के क्षे़त्र में काफ़ी काम हुआ। उन्हांने शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। सुलेमानिया मदरसे को हाई स्कूल तक तरक़्क़ी दी, जहांगीरिया मदरसा स्थापित किया।
बेसहारा और यतीम बच्चों के लिये बिलक़ीसिया मदरसा आरंभ किया। किताबों की छपाई के लिए शाहजहानी प्रेस स्थापित किया।
उसी शाहजानी दौर में मौलवी जमालउद्दीन ख़ां साहब जैसे महान आलिम और बुलंद हौसला वज़ीर, नवाब सिद्दीक हसन ख़ां बहादुर जैसे ज्ञान के सागर और कई किताबों के लेखक भोपाल को मिले। जिन्होंने कई ज़बर्दस्त आलिमों को यहाँ जमा किया। उन्हीं में से आखि़री दौर में हुसैन बिन मोहसिन अंसारी यमनी जैसे, हदीस के माहिर और महान उस्ताद भी थे जिनसे सारे हिन्दुस्तान ने फायदा उठाया और हिन्दुस्तान में मौजूद हदीस के लगभग 72 बडे़ आलिमों ने उनसे बहुत कुछ सीखा। इसी तरह नजद के दो बड़े आलिम शैख़ साद बिन अतीक़ नजदी और शैखुलइस्लाम मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब नजदी के पर पौते शैख़ इस्हाक़ बिन अब्दुल रहमान बिन हसन बिन शैखुलइस्लाम ने भी भोपाल आ कर उनसे हदीस का ज्ञान प्राप्त किया।
शाहजहां बेगम के दौर में उनकी मर्ज़ी और मदद से नयलुल औतार, फत्हुल बयान, तफ़सीर इब्ने कसीर, नज़लुल अबरार, जलाउलऐन, हुज्जतुल लाहील बालिग़ाह और फतहुल बारी (बुख़ारी की कुंजी) जैसी महत्वपूर्ण किताबों को छापा गया।
शाहजहानी दौर के निर्माण
शाहजहां बेगम को निर्माण का शौक़ दूसरे अमीरों के मुक़ाबले ज्यादा था। उनका शौक और हौसला उनके हमनाम दिल्ली के बादशाह शाहजहां से कम न था। ऐसा लगता है कि शेहंशाह शाहजहां की रूह शाहजहां बेगम में समा गई थी। जो उनके ज़रिये निर्माण का सिलसिला जारी रखे हुई थी।
नवाब शाहजहां बेगम ने जो इमारतें बनवाई उनमें से कुछ यह हैं। ताज महल, आली मंज़िल बेनज़ीर, गुलशने आलम, नूरमहल वग़ैरह। उनकी बेटी सुल्तान जहां बेगम लिखती हैं कि भोपाल के हुक्मरानों ने मस्जिदें बनवाईं लेकिन सरकारे आलिया (शाहजहां बेगम) की बनवाई मस्जिदें ज्यादा हैं। उन मस्जिदों में सबसे ज्यादा शानदार और बड़ी मस्जिद ताजुल मसाजिद है।
ताजुल मसाजिद की जगह पर ईदगाह
ताजुल मसाजिद और उसका इलाक़ा ऐसी सच्चाई थी जो सबको मालूम है। लेकिन जब दारूल उलूम ताजुल मसाजिद की बुनियाद रखने वाले मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब ने रायल मार्केट के सामने दारूल उलूम को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिये दुकानों का निर्माण शुरू किया तो कोई सोच भी नहीं सकता था कि इस निर्माण में कोई रूकावट भी आयेगी। हुआ यह कि 11 फरवरी 1958 ई० को नगर-निगम का नोटिस मिला कि जो कुछ बनाया है तोड़ दो वर्ना 24 घंटे बाद हम तोड़कर खर्च वसूल करेंगे। इस वजह से मामला अदालत में पहुंचा और रिकार्ड सामने आया तो एक नई सच्चाई का पता चला कि जहां अब ताजुल मसाजिद और उसकी जम़ीन है यहां इससे पहले ईदगाह थी और इस ज़मीन के बारे में शाहजहां बेगम ने अपने समय के आलिमों से फ़तवा लिया था और फ़तवे के अनुसार इस इलाके़ को मस्जिद की ज़मीन और वक़्फ मानकर यहां सरक़ारी इमारतें बनाने की योजना रदद कर दी गई थी। यहाँ शाहजहा़ बेगम का वह पत्र दिया जा रहा है। जिसमें उन्होनें का़जी जैनुल आबेदीन साहब से ताजुल मसाजिद की ज़मीन के संबंध में पूछा थाः
“हमको मंजूर है कि मुत्तसिल पुल शाहजहानी एक बस्ती आबाद करें और ईदगाह जो क़रीब उस पुल के है उठाकर दूसरी जगह मुक़र्रर करें। और जिस जगह अब ईदगाह बनी है यहां सरक़ारी मकान बनवा दें। इस लिए आपको लिखा जाता है कि आप शरियत की रोशनी में इस्लामी कानून की किताबों और अलग अलग मसलकों के हवाले से यह लिखें कि ईदगाह की ज़मीन का क्या हुक्म है? यह ज़मीन वक़्फ है? और हुक्म मस्जिद का रखती है कि इसमें मकान बनाना जायज़ है? और अगर वक़्फ का हुक्म रखती है तो यह ख़ास “हनफ़ी मसलक” (इस्लाम की चार विचारधाराओं में एक) में है या चारों मसलकों में? इस मसले की तफ़सील इस्लामी किताबों के हवाले से सही और दुरूस्त लिखकर भेजिये ताकि उसके मुताबिक़ ईदगाह के मुकाम पर मकान बनाने का हुक्म दिया जाये।
“ब ख़िदमत मुकर्रमा व मोअज्जमा मोहतरिमा नवाब शाहजहां बेगम साहिबा हाकिम रियासत भोपाल बाद सलाम के गुज़ारिश है कि आपका ख़त जो कि ज़मीन व मकान ईदगाह वक़्फ और मस्जिद का हुक्म रखते हैं के हवाले से आया है और जिसमें आपने मालूम किया है कि इसमें मकान बनाना जायज़ है या नहीं? तो तफ़सील इस मसले की शरियत की रोशनी में यह है कि ज़मीन व मकान ईदगाह की जो चारों तरफ़ से हदबन्दी की हुई है और उसमें मेहराब बनी है और उसमें नमाज़ ईद वग़ैरह की होती है तो यह जगह दूसरी मस्जिदों की ही तरह मस्जिद है और किसी दूसरे काम के लिये इस्तेमाल नहीं हो सकती। और यह वक़्फ और मस्जिद के हुक्म में है। यह फ़तवा ईदगाह के हुक्म में लिखा गया और जनाब मुफ़्ती साहब और मौलवी अब्दुल्लाह और दीगर आलिमों ने देखा और पढ़ा”।
इस जमीन पर सरकार शाहजहाँ बेगम ने 1302 हिज्री मुताबिक़ 1884 ई० में एक मस्जिद बनाने के लिये सामान मुहैया कराने, पत्थर तराशवाने और बनाने का हुक्म जारी किया।
यहां उस हुक्मनामा की नक़ल पेश की जाती है।
बुरहानपुर की जामा मस्जिद की तरह की एक मस्जिद लाल पत्थर की, हमारी तरफ़ से शाहजहांबाद में मौजूदा ईदगाह की जगह तैयार होगी। असल मस्जिद के 15 चश्मे 5 कोल हैं। इस मस्जिद के 11 चश्मे और 3 कोल होंगे। दो जानिब औरतों के नमाज़ अदा करने की जगह बनाई जायेगी। इसलिये तुम अभी से लाल पत्थर जमा करना और खंबे व मीनार आदि तैयार कराना शुरू कर दो। मस्जिद की छत नमूने के मुताबिक़ होगी। जो तुम्हारे पास मौजूद है।
यह बात उस रिकार्ड की रोशनी में साफ हो जाती है कि मस्जिद निर्माण के शुरूआती आदेश में सरकार शाहजहां बेगम ने जामा मस्जिद का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है। लेकिन रिकार्ड से यह साबित होता है कि 1305 हिज्री के बाद 1306 हिज्री से ताजुल मसाजिद का नाम इस्तेमाल होने लगा था। इस बात को देखते हुए यह बात समझ में आती है कि लैंड रिकार्ड के पुराने ख़सरों में जामा मस्जिद का जो नाम दर्ज है तो यह इन्दिराज 1305 हिज्री मुताबिक 1887 ई० का है। और शिलान्यास के समय आदेश में जो नाम है उस नाम से ख़सरे में इन्दिराज है। (नकल हुक्म नावाब शाहजहां बेगम साहिबा साल 1304 हिज्री खुलासाजात किताब में दर्ज 15 मुकदमात माल दफतर इन्शा बनाम मोहतमिम तामीरात रियासत)
खुलासा अर्जी मोहतमिम तामीरात मारूजा़ 21 सफर 1304 दरख्वास्त सुदूर हुक्म तेहरीरी दरबाब तैयारी फ़सील जौहर दो दरवाजा जो तामीर सड़क पुल शाहजहानी से बगीचा अब्दुल हमीद ख़ां मरहूम, सरक़ारी ज़बानी हुक्म के मुताबिक तामीर होती है। (नक़ल सेन्ट्रल रिकार्ड आफिस भोपाल तारीख़ 10 जून 1958 ई०)
हुक्म हुआ किः
यह अर्ज़ी नज़दीक मोहम्मद इस्हाक ख़ां मोहतमिम तामीरात रियासत की जावे कि फसील मुन्दरिजा तैयार करा कर हस्बे सरिश्ता मज़कूरा मजरा लह तारीख़ 24 सफर 1304 क़लमी मुन्शी शम्सुद्दीन (ज़बानी मीर मुन्शी साहब)
नक़ल हुक्म नवाब शाहजहां बेगम साहिबा बाबत साल तमाम 1305 हिज्री मुन्दरिजा किताब खुलासा जात मुक़दमात न0 7 दफ्तर इन्शा बनाम मोहतमिम तामीराते रियासत।
27 मोहर्रम 1305 बा इसरारे हुक्मे तेहरीरी दर बाब तामीरे मस्जिद जदीद वाक़े पुल शाहजहानी (नक़ल मुरत्तबा सेन्ट्रल रिकार्ड आफिस भोपाल तारीख 10 जून 1958 ई०)
हुक्म हुआ कि – यह अर्जी नज़दीक मोहतमिम तामीरात रियासत की जावे कि मुताबिक हुक्म के तामीरी काम मस्जिद जामा वाक़े पुल शाहजहानी जारी कर दो-फ़क़त तारीख 28 मोहर्रम 1305 मुताबिक 1887 ई० ब कलम अब्दुल रशीद।
शाहजहां बेगम के दौर में निर्माण व्यवस्था
ताजुल मसाजिद बेगम साहिबा के निवास ताज महल के दक्षिण में है। महल और मस्जिद के बीच जो तालाब नज़र आता है यह दरअसल मस्जिद का हौज़ है जो नमाज़ियों के वजू करने के लिए बनाया गया था। मस्जिद के उत्तरी दरवाजे़ से तालाब तक बड़ी-बड़ी सीढ़ियां बनाई जा रही थीं। पूर्ण हो जाने क बाद लगभग दस हज़ार आदमी एक साथ वजू कर सकते थे। अगर यह सीढ़ियां मुक्कमल हो जातीं तो वाकई एक अजीब दिल खुश करने वाला दिृश्य सामने आता। तालाब के पश्चिमी किनारे पर बेनज़ीर की इमारत बनी है जो उस दौर का सचिवालय था।
पूर्वी दिशा में लाल दरवाजे़ से ताजुल मसाजिद तक पक्की सड़क फैली हुई है। यह सड़क दर असल तालाब के लिये एक मजबूत बांध का काम भी देती है और तालाब का ज़्यादा पानी उसके नीचे से गुज़र कर मुन्शी हुसैन ख़ां के तालाब में चला जाता है। जिसकी सतह नीची है और उससे अन्दाज़ा होता है कि किस होशियारी और क़ाबिलियत के साथ महल और मस्जिद को बाक़ी रखने के लिये प्लानिंग की गई थी।
ताजुल मसाजिद की कुर्सी पश्चिमी सड़क से साढ़े तीन फिट ऊंची है। पूर्वी दिशा 3-6 फिट और उत्तर पूर्वी हिस्से से इसकी ऊँचाई 8 फिट है। ऊँचाई की सतह में यह फ़र्क़, निर्माण कला की दिृष्टि से इतनी खूबी और महारत के साथ रखा गया है कि किसी भी निर्माण कला के माहिर की निगाहें हैरान रह जाती हैं।
बरसात के जमाने में मस्जिद और उसके चारों तरफ़ के पानी के निकास के लिये मस्जिद की कुर्सी के उत्तर पूर्व में एक सुरंग जैसी बना दी गई है। इस सुरंग पर खूबसूरत रास्ता बना दिया गया है ताकि मस्जिद में दाखिल होने के बजाय लोग इसके ज़रिये तालाब तक वजू के लिये पहुंच जायें।
कारीगर
शाहजहां बेगम की निर्माण में दिलचस्पी और क़द्रदानी की वजह से दिल्ली, आगरा, जयपूर और दूसरी जगहों से उन माहिर क़ारीगरों की औलादें जिन्होंने ताजमहल, जामा मस्जिद दिल्ली, लाल किला दीवाने ख़ास और दीवाने आम तामीर किये थे सिमटकर भोपाल आ गर्इं और यहां उनको अपनी निर्माण कला के जौहर दिखाने का मौक़ा मिल गया।
आगरे का ताजमहल जिस तरह शीराज़ी नाम के मशहूर क़ारीगर के हाथों से बना। उसी तरह भोपाल की खुश नसीबी से भोपाल को अल्लाह दिला, नामी मशहूर और अपने दौर का तजुर्बेकार क़ारीगर मिल गया। भोपाल के तमाम महल, दफ्तरों और मस्जिदों पर उसी की निर्माण कला की छाप है।
पत्थर
ताजुल मसाजिद की तामीर में जो पत्थर इस्तेमाल किया गया है वह सुर्ख़ रेतीला है जिस पर नक़्शो-निगार भी आसानी से बन सकते है और जिसके तख़्ते भी काटे जा सकते हैं। इसमें भोपाल और आगरे का पत्थर इस्तेमाल किया गया है। बारह दरियां संगे मर मर की हैं। खम्बों और जालियों पर बहुत नाजुक नक़्श -निगार हैं जिनको सऊदी राजदूत देखकर हैरत में पड़ गए थे और उनको यक़ीन ही नहीं आता था कि इतने अच्छे नक़्शो- निगार हाथ से भी बनाये जा सकते हैं। मस्जिद के अंदर संगे मर मर पर संगे मूसा से पच्चीक़ारी करके कत्बे (पत्थर पर खुदाई करके लिखे गये) तैयार किये गये हैं।
ख़र्च
ताजुल मसाजिद का निर्माण ख़ालिस (शुद्ध) मज़हबी जज़्बे के तहत कराया गया। शाहजहां बेगम इसे एशिया का एक बे मिसाल तामीरी शाहकार बनाना चाहतीं थीं इस सिलसिले में उनके ख़जाने का मुंह हर वक़्त खुला रहता था। उन्होंने मस्जिद के निर्माण के सिलसिले में कभी खर्च की परवाह नहीं की।
एक अन्दाज़े के मुताबिक इस पर 15-16 लाख रूपये से ज्यादा ख़र्च हुए। इंजीनियरों और माहिरों के हिसाब से जो आज के 70 करोड़ रूपये के बराबर हैं।
तामीर के लावारिस पड़े रहने से नुक़्सानात
ताजुल मसाजिद में जो पत्थर इस्तेमाल हुआ है उसके बारे में माहिरों का यह कहना है कि अगर इस क़िस्म के पत्थर पर सही तरीके़ से पालिश न की गई हो तो धूप और बारिश के असर से 50 साल के बाद इसका रंग उड़ने लगता है। उस दौर में क्योंकि सीमेंट का चलन नहीं था इस वजह से निर्माण कार्य में चूना इस्तेमाल किया जाता था और जो मसाला बनाया जाता था उसमें चूना, पिसी हुई ईंट, गुड, बेल फल का गूदा और उड़द की दाल मिलाई जाती थी और यही मसाला ताजुल मसाजिद में भी इस्तेमाल किया गया।
हालांकि ताजुल मसाजिद में चूने का इस्तेमाल ख़ास तौर से किया गया था। लेकिन शाहजहां बेगम के इंतेकाल (मृत्यु) के बाद काम अचानक बंद हो जाने की वजह से इसे पानी, सर्दी और गर्मी से बचाने का इंतेजाम नहीं हो पाया था। इसलिये लगातार बारिशों में पत्थर की दरारों में से चूना बह गया और वह बहा हुआ चूना पत्थरों की सतह पर जमता रहा और मौसमों के असर से कभी गीला और कभी सूखा अपनी रासायनिकता के कारण पत्थरों को नुक़सान पहुंचाता रहा।
आज भी पूरी इमारत पर उस कैमिकल का असर है। इसकी तरफ़ भी दारूल उलूम के जिम्मेदारों का ध्यान है कि पूरी मस्जिद की सफ़ाई करके उस पर पॉलिश करा दिया जाऐ वर्ना इस खूबसूरत इमारत को बहुत ज़्यादा नुक़सान होगा।
बिलौर (एक प्रकार का कांच) का सामान
नवाब शाहजहां बेगम ने ताजुल मसाजिद के लिये बिलौर के मुसल्ले, कलस और फ़व्वारे और ज़नाना (महिला) हिस्से के लिये बिलौरी फर्नीचर तैयार करा के मंगवाया था।
सुल्तान जहां बेगम लिखती हैः
“इसकी तामीर पर 15-16 लाख रूपया ख़र्च हो चुका है। इसका बिलौरी फर्श 7 लाख रूपये ख़र्च कर के इंग्लैंड के एक कारख़ाने में तैयार कराया गया (तज़्के सुल्तानी पृ० 414)
लेकिन जब बिलौर के मुसल्ले आये जो चार टुकड़ों में थे और उनको फिट करने का वक़्त आया तो आलिमों का इस पर मतभेद हुआ कि इसमें सूरत नज़र आयेगी इसलिये इनका लगाना जायज़ नहीं है। इस पर नवाब शाहजहां बेगम ने आलिमों से फतवा लिया, इस सिलसिले में मौलाना सैयद जुल्फिकार अली नक़़वी मरहूम ने लिखाः-
अलहम्दुलिल्लाह सरकार जन्नत नशीन ने ताजुल मसाजिद के लिये कांच के मुसल्ले बनवाये थे। इसके लिये आलिमों से फ़तवा पूछा और कहा कि का़ज़ी साहब से भी फ़तवा लिया जाये, मैनें क़ाज़ी मौलवी अब्दुल्लाह काबुली को लिखा कि सरक़ारी फरमान है कि आप भी फ़तवा लिखकर भेजं तो उन्होंने यह फ़तवा लिखा- (भोपाल के क़ाज़ी और फ़तवे क़ल्मी नुस्ख़ा)
सवाल:सवाल: कांच या बिलौर के मुसल्लों का फ़र्श मस्जिद के दालानों और आंगन में किया जाये तो हराम है या जायज़।
जवाब: जवाब: बिलौर के मुसल्लों का फ़र्श मस्जिद में हराम नहीं बल्कि दुरूस्त और जायज़ है, कई वजह सेः
एक: एक: कुरआन और हदीस में कांच के इस्तेमाल को आम तौर पर ना तो मकानों में हराम कहा गया और ना ही मस्जिदों में और हराम होने की दलील के बिना कोई चीज़ हराम नहीं हो सकती जबकि जानकारों के अनुसार जिन चीज़ों से यह कांच बना वह हलाल हैं।
दो: दो: कुरआन की सूराह नमल में लिखा है कि पैग़ंबर हज़रत सुलेमान की तरफ से बिलक़ीस (मल्का सबा) को उस महल में दाखिल होने का हुक्म हुआ जिसमें शीशा या कांच लगा हुआ था इस लिये खुद हज़रत सुलेमान ने इसके बारे में बिलक़ीस को साफ़ साफ़ बताया तो उस बात से आम तौर पर मकानों में कांच इस्तेमाल किया जाना साबित हुआ। यह क़िस्सा हालांकि आखि़री पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद (सल०) से पहले का है मगर क़ाबिल आलिमों का यह क़ायदा है कि जब कुरआन और हदीस में पहले वालों के किस्से लिखे गये हों और उनके बारे में मना नहीं किया गया हो या उनको हमारे शरिया क़ानून में रद्द न किया गया हो तो वह हमारे लिये बुरा नहीं है। और यह क़िस्सा ऐसा ही है कि ना तो इसको मना किया गया और ना ही रद्द किया गया है तो ऊपर कही हुई बात सही हुई कि जब आमतौर पर मकानों में कांच का इस्तेमाल जायज़ हुआ तो मस्जिद में भी जायज़ ही का हुक्म है। जब तक मस्जिद में इस्तेमाल ना होने की कोई ख़ास दलील पाई जाये।
तीन: तीन: एक और तरह से इसका जायज़ होना मालूम होता है कि हदीस के महान आलिम, इमाम बुख़ारी ने हज़रत इब्ने अब्बास के हवाले से लिखा है कि हज़रत इब्ने उमर (रजि०) ने बर्फ़ पर नमाज अद़ा की है। हसन बसरी (रह०) का मानना है कि इसमें कुछ डर ना था कि बर्फ पर नमाज़ अदा की जाये, कि बर्फ़ जमा हुआ पानी है और पानी बहुत साफ सुथरा होता है और अक्स भी उसमें नज़र आता है। और बर्फ़ में चमक भी होती है।
चार: चार: हदीस में जिन जगहों पर नमाज़ अदा करने को मना किया गया है। जैसे कूड़ाघर, जानवर ज़िबह करने की जगह, क़ब्रिस्तान, रास्ता, हम्माम, ऊंट बांधने की जगह, काबा की छत वगै़रह उनमें कहीं कांच या बिलौर का फ़र्श न तो ख़ास तौर से शामिल है और न तो आमतौर पर, बस इन सब कारणों से साबित हुआ कि शीशे के फ़र्श का इस्तेमाल मस्जिद में हराम नहीं बल्कि जायज़ के दर्जे में है।
अब रही बात यह कि जायज़, पसंदीदा है या ना पसंदीदा? अदब के खि़लाफ़ है या नहीं या दोनों तरह बराबर है? तो मालूम हुआ कि बुजुर्गों का तरीक़ा सजावट से फ़ायदा उठाने का ना था और इससे बचने के बारे में कुछ हदीसें और पैग़ंबर मोहम्मद (सल०) की किताबों और उनके साथियों के तरीकों में आया है और यह सजावट ज़ाहिरी तौर पर अल्लाह की तरफ़ ध्यान लगाने में रूकावट मालूम होती है। इसलिये इन वजहों से यह ना मुनासिब और अदब के खि़लाफ होने के दर्जे में है। पसंद और अदब सादगी में है।
यहां फिर हमको शाहजंहा बेगम की अचंभित करने वाली दीनदारी की मिसाल मिलती है कि उन्होंने नापसंद होनें की ख़ातिर बहुत ज्यादा चाहत के बावजूद उन कांच के मुसल्लों को ताजुल मसाजिद में नहीं लगवाया।
अफ़सोस है कि यह सारा सामान चोरी हो गया। जब 1971 ई० में ताजुल मसाजिद को पूर्ण करने की शुरूआत हुई तो बड़ी कठिनाई से उस मुसल्ले का एक पूर्ण नमूना मिल सका जो दारूल उलूम की लायब्रेरी में सुरक्षित है।
निर्माण कार्य में रूकावट
सन 1901 ई० में नवाब शाहजहां बेगम के इंतक़ाल के बाद निर्माण का काम रूक गया। सुल्तान जहां बेगम जो शाहजहां बेगम की बेटी थीं और उनके बाद उनकी जांनशीन (उत्तराधिक़ारी) भी हुईं । उनकी हुकूमत के दौर में ताजुल मसाजिद के निर्माण का काम शुरू नहीं हो सका। तमाम क़ारीगर और कलाकार काम शुरू होने का इंतेज़ार करते रहे, लेकिन वक्त गुज़रता रहा और यह कलाकार और क़ारीगर गरीबी का शिकार हो कर बदहाली में भोपाल छेाड़ते रहे।
नवाब हमीदुल्लाह की दिलचस्पी
1937 ई० में नवाब हमीदुल्लाह ख़ां का ध्यान अपूर्ण मस्जिद की तामीर की तरफ गया तो माहिर कलाकारों ने इसका विरोध किया क्योंकि 36-37 साल तक बारिश में लगातार भीगने और दीगर कलात्मक समस्याओं की वजह से उसी नक़्शे पर मस्जिद को बनाना मुनासिब नहीं समझा गया और यह तय पाया कि दोनों मीनारों और छत के गुंबदों की जगह पर एल्मुनियम वग़ैरह के हल्के फुल्के गुबंद और मीनार तैयार करके फिट कर दिये जायें।
इसमें दो साल का वक़्त गुजर गया सितंबर 1939 ई० में दूसरे विश्व युद्ध की शुरूआत हो गई और मस्जिद से ध्यान हट कर बैरागढ़ के जंगी क़ैदियों के कैंप की तरफ लग गया।
जंग ख़त्म होने के बाद मस्जिद पूर्ण कराने का काम दोबारा शुरू हुआ और नवाब हमीदुल्लाह ख़ां ने पूर्ण करने के लिये सरवर कुरैशी साहब आर्किटेक्ट को चुना कि ख़र्च वगैरह तय करें और भोपाल के क़िले की चारदीवारी खत्म करने के प्लान को भी साथ-साथ मनजूर किया और इन दोनों कामों की जिम्म़ेदारी सरवर कुरैशी साहब को दी गई। इस तरह उत्तरी दरवाज़े पर कुछ काम शुरू हुआ। आंगन की भर्ती शुरू हुई। अभी बहुत कुछ काम बाक़ी था कि सियासी हालात रूकावट बन गये और काम फिर बंद हो गया।
ताजुल मसाजिद का पूर्ण होना
ताजुल मसाजिद की ज़िम्मेदारी मिलने के बाद से ही मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां नदवीं को इसे पूर्ण करने की चिंता हो गई थी। मौलाना ने कई बार कहा कि उनकी नीयत तो पूर्ण निर्माण की है, लेकिन कामयाबी खुदा की मर्ज़ी पर है।
दारूल उलूम की स्थापना से लेकर ताजुल मसाजिद के पूर्ण होने की मुहिम का हाल
मौलाना इमरान साहब ने जब से ताजुल मसाजिद की देखभाल और निगरानी अपने ज़िम्मे ली उसी वक्त से पुराने प्लान को नज़र में रखा और कुछ हालात की वजह से जब मस्जिद के बाहर वक़्फ़िया ज़मीनों और इमारतों को शैक्षणिक उद्देश्य के लिये इस्तेमाल ना कर सके तो मस्जिद की मेहराबदार गैलरियों और दालानों में इस तरह तामीर, सुधार और तब्दीली करते रहे कि एक तरफ़ इस महानतम और गोरव के क़ाबिल इस्लामी यादगार की खूबसूरती पर असर ना पड़े और दूसरी तरफ वह दीनी व इस्लामी इदारा (संस्थान), दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के लिये तमाम ज़रूरी इमारतों का काम देती रहे दूसरी तरफ़ तब्लीग़ी इज्तिमा (वेचारिक समागम सभा) में आने वालों को भी किसी तरह की परेशानी ना हो।
वह तमाम निर्माण कार्य जो 1971 ई० के नियमित निर्माण से पहले हुए
हौज़
यह हौज़ 50 गुणा 50 स्क्वायर फ़िट का है और इसके चारों तरफ साढे़ सात फिट का पक्का चबूतरा है। हौज़ की गहराई 4 फ़िट तक है। हज़ारों रूपये के ख़र्च और सैंकड़ों मुख़लिस मुसलमानों की अल्लाह के लिये (निःस्वार्थ) मज़दूरी से एक महीने से कम वक़्त में 1951 ई० के आखि़री दिनों में तीसरे तब्लीग़ी इज्तिमा से बिल्कुल पहले यह हौज़ पूर्ण हो गया।
हौज़ के बीच में एक बिल्लौरी फ़व्वारा लगा दिया गया जिससे हौज़ की रौनक दो गुनी हो गई। इस हौज़ के लिये शाहजहां बेगम ने बिल्लौर की ईंटें मंगवाई थीं लेकिन उनके इंतक़ाल और काम बंद होने की वजह से वह तमाम सामान चोरी हो गया। इस लिये यह हौज़ आम ईंटों से निर्माण हुआ और अब वह फ़व्वारा भी ना रहा।
संगीन मुसल्ले (पत्थर के मुसल्ले)
आंगन के 75 फीसदी हिस्से में गहरे गड्ढे थे। नवाब हमीदउल्लाह ख़ां के दौर की भर्ती के बावजूद आधे से ज़्यादा आंगन बाक़ी था। दारूल उलूम बन जाने के बाद गड्ढों को भरा गया। फिर उसमें पत्थर के मुसल्ले लगाये गये। लगभग आधा आंगन पूर्ण होने की मुहिम से पहले तैयार हो चुका था।
कमरों का निर्माण
मस्जिद के बहुत बड़े आंगन को 12 फिट चौड़ी मेहराबदार गैलरी उत्तर-पूर्व की तरफ से घेरे हुई थी। दक्षिण में गैलरी अपूर्ण थी। इन पूरी बनी हुई गैलरियों को कमरों की शक्ल में बदल दिया गया है। इस निर्माण में 5620 फिट दीवारों की चुनाई हुई।
85 बड़ी चौखटें और दरवाजे़ लगाये गये 116 खिड़कियां लगाई गई और 100 रोशनदान 41 कत्बे लगाये गये। उसके बाद से यह कमरे दारूल उलूम के अलग अलग कामों के लिये इस्तेमाल होते रहे हैं। जैसे मेहमान ख़ाना, दारूल उलूम का दफ्तर, खाने का कमरा, लायब्रेरी और मस्जिद के सामान का स्टोर, होस्टल वगैरह जिसमें लगभग 220 लड़के रह सकते हैं।
फर्श की तकमील
मस्जिद के दर के ऊपरी शानदार बड़े हाल में और पूर्वी दालान में और उत्तर-पूर्वी दालान में कहीं फ़र्श पूर्ण ना था और कहीं बिल्कुल ना था। उसको पूरा किया गया। जिसकी कुल लंबाई 200 फिट और चौड़ाई 12 फिट है।
सीढ़ियां
मस्जिद में आने जाने के लिये सिर्फ तीन दरों के सामने तीन ज़ीने थे लेकिन अब तमाम दरों के सामने सीढ़ियां बना दी गई हैं। साथ ही मस्जिद के उत्तर व दक्षिण में ज़नाना (महिला) मस्जिद और उसके आंगन में आने जाने के लिये भी सीढ़ियां बना दी गई हैं।
गुसलख़ाने और शौचालय
दक्षिणी दिशा में मस्जिद से लगी ज़नाना (महिला) मस्जिद के लिये पांच शौचालय और गुसलख़ाने बनए गये हैं। और मस्जिद के उसी तरफ़ बाहरी इस्तेमाल यानी होस्टल वग़ैरह के लिये चार गुसलख़ाने और पांच शौचालय बनवाये गये।
किचिन
दारूल उलूम के साथ क्योंकि होस्टल भी है और होस्टल में काफी तादाद में छात्र रहते हैं। इसलिये ज़रूरत थी कि उनके खाने और नाशते के प्रबंध के लिये किचिन हो, इसलिये दक्षिण दिशा में मस्जिद के बाहर 2 किचिन बना दिये गये थे।
मस्जिद के मीनार
इस अपूर्ण मस्जिद के अपूर्ण मीनार भी ऊचें नीचे थे। इस सिलसिले में उत्तरी मीनारों को लगभग 40 फिट ऊंचा करके दक्षिणी मीनार के बराबर किया गया, मीनारों का डायमीटर 25 फिट है।
मस्जिद की छतें
मस्जिद का निर्माण 1901 ई० से बंद था और जिसका निर्माण व तकमील (पूर्ण) ना हो उसकी छतें कहां कहां से न टपकती होंगी और बारिश का पानी उसके दरो दीवार में किस तरह से बैठ रहा होगा उसकी तफ़सील यहां बयान करना कठिन है। इस कठिनाई पर किसी तरह क़ाबू पाने के प्रयास किये गये। इस तरह कि छतें डाली गर्इं कि कई दरारें बंद की गर्इं, और कहीं प्लास्टर करवा दिया गया।
मस्जिद का आंगन
मस्जिद का आंगन ऊबड़ खाबड़ और इस्तेमाल के लायक़ नहीं था सैकड़ों ट्रक मलबा डाले जाने और सैकड़ों लोगों की मेहनतों की वजह से वह बड़ी हद तक क़ाबू में आया।
बिजली का प्रबंध
इस लम्बी चौड़ी मस्जिद में बिजली की फिटिंग भी आसान काम नहीं था। लेकिन खुदा की मेहरबानी से वह काम बड़ी हद तक मस्जिद के अंदरूनी हिस्से, आंगन कमरों (जिनमें स्टोर, आफ़िस, डायनिंग हाल, होस्टल, लायब्रेरी वग़ैरह है) और मस्जिद के बाजू वाली ज़नाना मस्जिद के हिस्सों में पूर्ण हो गया। इस तरह इतने बड़े हिस्से में कुल मिलाकर लगभग 3000 फिट बिजली की लाइन है।
पानी का प्रबंध
पहले ताजुल मसाजिद में नल की लाइन सिर्फ बाहरी खुले बाथरूम वाले हौज़ और एक लौहे की टंकी तक थी। यह टंकी दक्षिण दिशा में दालान के पास रखी हुई थी। नल की लाइन उबैदिया स्कूल वाली लाइन से आती थी। और हमेशा पानी की कमी रहती थी। अब खुदा के फज़्लो-करम से ज़्यादा चौड़ी लाइन का कनेक्शन सीधा मेन लाइन से मिल चुका है और बड़ी हद तक ज़रूरत के लिये पानी मिल जाता है। इस सिलसिले में अलग-अलग साइज़ का लगभग 526 फिट पाइप लगा है।
यह सब काम 1960 ई० तक हुए थे। 1971 ई० से पहले जबकि ताजुल मसाजिद को पूर्ण करने की मुहिम नियमित शुरू हुई, कुछ और काम इस तरह से हुए।
1- उत्तर दिशा में ज़नाना (महिला) मस्जिद के एक बड़े दालान का फ़र्श पूर्ण कराया गया।
2- बीच की मेहराब के सामने संगे-मरमर की सीढ़ियां बनवाई गईं।
3- बाक़ी की मेहराबों के सामने पत्थर की सीढ़ियां बनवाई गईं।s
4- मस्जिद के आंगन में अस्थाई साया करने के लिये लौहे के पाइप लगाकर उनपर लोहे का तार बांधा गया जिससे कि इज्तिमा के समय में उन पर कपड़ा वगै़रह का साया किया जा सके।
नये निर्माण के प्रयासों की शुरूआत
ताजुल मसाजिद को पूर्ण करने की तमन्ना मौलाना इमरान ख़ां साहब के दिल में यहां की ज़िम्मेदारी संभालने के पहले दिन से ही थी। इसलिये जब जब मौका मिला कुछ न कुछ निर्माण होता रहा। जैसा पहले लिखा जा चुका है।
उत्तरी दालान के निर्माण का प्लान
10 दिसंबर 1966 ई० को हुई अधिकारिक परिषद की मीटिंग में दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के अध्यक्ष की तरफ़ से उत्तरी दालान के निर्माण का प्रस्ताव रखा गया। तमाम बातों पर ग़ौर करने और कुछ और बेहतर प्रस्ताव तैयार करने के लिये अधिकारिक परिषद के सदस्यों की एक कमेटी बनाने की मंजूरी दी गई। और तय किया गया कि यह कमेटी मामलात के सभी पहलूओं पर ग़ौर करके ज़रूरत के मुताबिक़ निर्माण कला के माहिरों से सलाह करके खुदा के भरोसे पर काम शुरू कर दे साथ ही बनाने की अनुमति और पैसे का इंतेजाम करना भी इस कमेटी के ज़िम्मे किया गया।
फिलहाल यह कमेटी उस पैसे से काम शुरू कर दे जो एक साहब ने इसी काम के लिये ख़ास तौर से दिये थे। बाक़ी ख़र्च के इंतेजाम के लिये कुछ और प्रयास किये जायें और कमेटी अपने काम की रिपोर्ट अधिकारिक परिषद को देती रहे।
इस कमेटी में जो लोग शामिल थे उनके नाम है
मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब, मौलाना सैयद हशमत अली साहब, अब्दुल हमीद ख़ां साहब ओवर सीर, मौलाना सैयद मंजूर हुसैन साहब सरोश, जनाब अब्दुल रऊफ ख़ां साहब और जनाब इफ़्तेख़ार अहमद साहब।
अधिकारिक परिषद की मीटिंग में उत्तरी दालान की बात आ चुकी थी। छत की ख़राबी का लगातार बढ़ना बहुत हैरत और परेशानी की बात थी। निर्माण कला के माहिर और ख़ासतौर पर अधिकारिक परिषद के सदस्य अब्दुल हमीद साहब ओवर सीर का भी यही ख़्याल था कि छत की हालत ख़राब है इसलिये सबसे पहले उस पर ध्यान दिया जाये।
मौलाना इमरान साहब फरमाते हैं कि अक्टूबर 1967 ई० में जब हज़रत साहब ने पहली बार मुझसे मुख़ातिब होकर इरशाद फ़रमाया कि मौलवी साहब ताजुल मसाजिद की तरफ़ आप तवज्जो क्यों नहीं करते ? तो मैने अर्ज़ किया कि मै क्या कर सकता हूँ ? जिस काम को रियासत के हुक्मरां नहीं कर सके, उसको करने की हिम्मत इस ज़माने में कौन करे और कैसे करे ? फ़रमाया आदमी ही इन कामों को करते हैं, हिम्मत कीजिये, हिम्मत क्यों हारते हैं ?
यही बात लगभग 12 अगस्त 1969 ई० की मीटिंग में मौलाना इमरान ख़ां ने लिखी है। ताजुल मसाजिद का निर्माण और पूर्णता बेशक हमारा मक़सद था। लेकिन पैसे और सामान की कमी की वजह से बस उम्मीद और तमन्ना ही थी। हुआ यह कि कई साल बाद हज़रत मोहम्मद याकूब साहब मुजद्दिदी ने अचानक इरशाद फ़रमाया कि, अरे मौलवी साहब, यह ताजुल मसाजिद कब तक यूं ही पड़ी रहेगी ? इसका निर्माण क्यों नहीं करते ? मैं ने ख़ामोशी से यह सोचा कि हजरत साहब की बात को कैसे टाला जाये और दूसरी तरफ यह भी फिक्र थी कि, इस मुहिम को कैसे अंजाम दिया जाये ?
मौलाना ने फ़रमाया ताजुल मसाजिद की फ़िक्र मुझ पर सवार थी और मस्जिद बनाने के लिये कोई चन्दा नहीं देता था। लेकिन दारूल उलूम खुले हुए 20 साल हो चुके थे और लोगों के चन्दे पर ही दारूल उलूम बराबर चल रहा था। ताजुल मसाजिद के लिये चन्दा मांगो तो लोग कहते कि मौलवी साहब दुनिया के सारे काम हो सकते हैं। लेकिन ताजुल मसाजिद का निर्माण नहीं हो सकता। इसलिये जो चीज़ नहीं हो सकती उसके निर्माण के लिये चन्दा देने से क्या हासिल ? दो हज़ार, पांच हज़ार का चन्दा भी क़ाफी नहीं है। क्योंकि ज़रूरत लाखों की है। यही बात सारी दुनिया में भी मशहूर थी जिसका जिक्र खुद कैनेडा में रहने वाले भोपाल के बाशिंदे जनाब इनाम उल्लाह मक्की साहब ने किया है। जब उनसे मौलाना ने कहा कि ताजुल मसाजिद पूर्ण हो रही है, उसके लिये चन्दा दो तो उन्होंने कहा कि ताजुल मसाजिद तो पूर्ण हो ही नहीं सकती। ना मुमकिन है। बड़ी कठिनाई से उनको इस बात का यक़ीन आया, उनसे कहा गया कि आप खुद आकर देखें।
यह बात हज़रत साहब को भी बताई गई। उन्होंने बड़े ध्यान से सारी बातें सुनीं और फ़रमाया कि ऐसा करो कि भोपाल और हिंदुस्तान को छोड़ो, तुम तो कहीं बाहर चले जाओ और शुरू में लाख दो लाख चन्दा ले आओ भोपाल के लोग बहतु मायूस हैं। उसके बाद देखो अल्लाह तआला किस तरह ख़ज़ाने खोलता है।
मौलाना फ़रमाते हैं कि मैं ने हज़रत साहब से अर्ज़ किया कि कई दिनों से यह ख़्याल मेरे दिमाग मे भी आ रहा है कि बाहर चला जाऊँ। वहां जानने वाले लोग भी हैं।
ताजुल मसाजिद निर्माण के बाक़ी काम
जब यह तय हुआ कि मस्जिद पूर्ण करने के अभियान को शुरू करना है तो बाक़ायदा प्रोग्राम बनाया गया और पूर्णता के नज़रिये से सबसे ज्यादा अहम और ज़रूरी काम जो तय किये गये उनकी तफ़सील और बजट इस तरह है।
1 | तमाम छतों का पुराना प्लास्टर निकाल कर (जो बेकार हो चुका है) चूने या गिट्टी का पूरा प्लास्टर डाला जाये। | 2 लाख |
2 | मस्जिद के गुंबद पूर्ण कराये जायें ताकि एक ज़रूरी काम पूरा हो और बरसाती पानी से मस्जिद को बचाया जाये। | 20 लाख |
3 | ऊपरी हिस्से में बेईमान ठेकेदारों ने जो छत डाली है, गिरने पर है। उसे बदला जाये। | 3 लाख |
4 | उत्तरी दालान का बड़ा हिस्सा (22 दरों वाला) अपूर्ण है। उसका निर्माण कराया जाये। | 3 लाख |
5 | पूर्व में मस्जिद का शानदार मर्कज़ी (केन्द्रीय) दरवाज़ा जो 70 साल से अधूरा है। उसे पूर्ण कराया जाये। | 9 लाख |
6 | वह गड्डा जो लगभग 100 फिट लम्बा 40 फिट चौड़ा आरै 15 फिट गहरा है। वहां तहख़ाना बनाया जाये। | 50 हजार |
7 | अंदरूनी निर्माण की पूर्णता के साथ साथ इस लंबी चौड़ी मस्जिद के पानी की निकासी के लिये भी रास्ते बनाये जायें। | 50 हजार |
8 | मस्जिद के आंगन में पत्थर के मुसल्ले लगा दिये जायें ताकि पूरा आंगन नमाज़ अदा करने लायक़ हो जाये। | 1 लाख |
9 | मस्जिद के मीनारों को पूर्ण किया जाये ताकि उन मीनारों से बरसाती पानी बहना बंद हो। | 30 लाख |
10 | उत्तरी सीढ़ियां तालाब तक बनाई जायें। | 5 लाख |
11 | ऊपरी ख़र्च | 1 लाख |
कुल रक़म लगभग | 75 लाख |
इसके बाद चन्दे की मुहिम के लिये फ़ोटो, पमफ़्लेट और काग़जात की तैयारी का मामला आया, जिसको प्रोफे़सर मसूदुर्रेहमान साहब ने अपनी समझ से बहुत जल्द नये अंदाज़ में तैयार करा दिया।
दारूल उलूम के अहाता (परिसर) में दीगर निर्माणः
मस्जिद के अंदर के निर्माण की तफ़सील इससे पहले लिखी जा चुकी है। दारूल उलूम ने मौलाना की आला समझ और अपने बुलंद मर्तबा की वजह से ना सिर्फ ताजुल मसाजिद के आसपास की ज़मीन को हासिल किया बल्कि एक ज़बर्दस्त बिज़नेस काम्पलेक्स बनाकर दारूल उलूम की माली हालत को हमेशा के लिये मज़बूत कर दिया।
दुकानों का निर्माण
ताजुल मसाजिद को पूर्ण करने का काम जारी था। ज़ोर-शोर के साथ भोपाल वाले और हिंदुस्तान के लोग निर्माण के कामों में हिस्सा ले रहे थे कि इसी दौरान दारूल उलूम की ज़मीन का मसला जो कई दिन से रूका हुआ था, दिसंबर 1974 ई० में हल हो गया। और ज़मीन पर दारूल उलूम को क़ब्ज़ा भी मिल गया। हुकूमत की तरफ से दुकानें बनाने की इज़ाजत देने का वादा भी कर लिया गया। ताजुल मसाजिद की तकमील के बहुत से काम हो चुके थे फिर मौलाना और अधिकारिक परिषद की राय हुई कि दुकानें बनाने की अनुमति जल्दी ले कर काम शुरू किया जाये वर्ना हुकूमत बदलने से हालात भी बदलते हैं और नये-नये मसले पैदा होते हैं। इसलिये दुकानें बनाने की अनुमति लेने की दौड़धूप शुरू हो गई। जब पैसे के प्रबंध का मसला पैदा हुआ तो मौलाना की राय थी कि भोपाल के लोगों ने ताजुल मसाजिद के लिये जिस तरह दिल खोलकर चन्दा दिया है और दे रहे हैं और उसके कई काम अभी भी बाकी हैं इसलिये दुकानें किसी और मद से बनाई जायें।
मौलाना की राय थी कि एक रक़म 56 हज़ार रू जो मुक़दमा लड़ने के लिये 1952 ई० में जमा हुई थी उसका बड़ा हिस्सा बचा हुआ है। दूसरी रक़म वक़्फ कर्नल इक़बाल ख़ां साहब की ज़मीन बैच कर आई थी जो 4,85,751, रू जमा थी, उस मद से क़र्ज लेकर काम कर लिया जाये और जो आमदनी हो वह क़र्ज की क़िस्तवार अदायगी में दे दी जाये। ताकि वक़्फ का क़र्ज जल्द अदा हो जाये।
इन वजहों से और ख़ास इस वजह से भी कि दुकानें बनने से निर्माण के काम में मदद होगी, दुकानों के बनाने का सिलसिला शुरू हो गया। इसके साथ मस्जिद के निर्माण के काम भी चलते रहे लेकिन दुकानों और दीगर निर्माण काम जब बढ़े तो छत का असल काम रूक गया और दीगर काम होते रहे। फिर सैयद सुलेमान नदवी सेमिनार 1985 ई० के मौक़े पर उनकी याद में सुलेमान हाल के निर्माण का प्रस्ताव पास हुआ तो तवज्जो उस तरफ़ हो गई।
मौलाना इमरान ख़ां साहब और मौलाना मंजूर सरोश साहब मरहूम के दौर में छत का काम पूर्ण नहीं हो सका था। इसकी एक तकनीकी वजह यह भी थी कि कुछ माहिरों की राय थी कि मौजूदा छत पर ही आर सी सी की एक छत डाल दी जाये ताकि मलबा निकालने में पत्थर की सिलों के टूटने का ख़तरा मोल ना लेना पड़े। दूसरी राय यह थी कि मिट्टी और सारा मलबा पत्थरों तक खुरच कर निकाल दिया जाये और उन पत्थरों पर आर सी सी की छत डाल दी जाये फिर यह काम तृतीय अध्यक्ष प्रोफ़ेसर मौलाना मोहम्मद हस्सान खाँ साहब की अध्यक्षता काल के दौरान 1998 ई० में पूरा हो सका।
अधिकारिक परिषद की मीटिंग जो कि 10 फरवरी 1975 ई० को हुई, उसमें मौलाना मरहूम ने याददाश्त पेश की जैसा कि दारूल उलूम ताजुल मसाजिद भोपाल की अधिकारिक परिषद के सम्मानीय सदस्यों को जानक़ारी है कि अल्लाह की मेहरबानी से ताजुल मसाजिद के आसपास की ज़मीन पर दारूल उलूम ताजुल मसाजिद को क़ब्ज़ा मिल गया है और यह भी तय हो गया है कि इस ज़मीन पर एक एक करके इमारतें बनाने की अनुमति दी जायेगी।
सबसे पहले इनशा अल्लाह उस हिस्से पर निर्माण होगा जो हमीदिया रोड (ठेलेवाली सड़क) के पश्चिम में यानी जो जगह ताजुल मसाजिद के दक्षिणी मैदान के उत्तर में है। सरसरी अंदाजे़ के मुताबिक़ कम से कम तीस चालीस बड़ी दुकानें बनेंगी। यह बहुत बड़े निर्माण कि योजना है। और इसके लिये लाखों रूपये की ज़रूरत होगी। दारूल उलूम के लिये यह मुमकिन नहीं है कि इस काम के लिये बैंकों वग़ैरह से ब्याज़ पर पैसा लिया जाये। खुद दारूल उलूम के पास कोई बड़ी रक़म नहीं हैं। इस काम के लिये आमतौर पर चन्दा लेना भी फिलहाल मुनासिब नहीं है क्योंकि असल मस्जिद के निर्माण का काम भी जारी है और अभी इसके लिये ही लाखों रूपये की ज़रूरत है जो सिर्फ़ चन्दे और मदद से पूरी हो सकती है। इसलिये दारूल उलूम ताजुल मसाजिद की अधिकारिक परिषद के प्रस्ताव के मुताबिक़ जो कि 26, दिसंबर 1972 ई० को ताजुल मसाजिद की ज़मीन पर दुकानें बनाने के लिये कमेटी वक़्फ ज़राअत मोहम्मदिया बाड़ी से रू 5 लाख, 50 हजार रू सालाना की अदायगी के वादे के साथ दारूल उलूम ताजुल मसाजिद ने क़र्ज़ लिये।
इस क़र्ज़ की अदायगी का तरीक़ा यह हो सकता है कि निर्माण हो जाने वाली इमारतों से जो आमदनी हो वह शुरूआत में (ज़रूरी ख़र्च निकाल कर) जहां तक हो सके पूरी की पूरी रक़म क़िस्तवार क़र्ज़ में अदा की जाती रहे। यह उम्मीद करना शायद ग़लत ना हो कि तीस दुकानें बन जायें तो उनसे रू 72,000/- सालाना आमदनी हो सकती है। उसमें से इनशा अल्लाह कम से कम रू 50,000/- सालाना क़िस्त अदा की जा सकती है। इस तरह अगर खुदा को मंज़ूर है तो दस साल में पूरा क़र्ज़ अदा हो सकेगा।
ऐसी उम्मीद भी है कि कोई ऐसा रास्ता निकल आये कि उससे पहले ही यह क़र्ज़ अदा कर दिया जाये। क्योंकि वक़्फ ज़राअत मोहम्मदिया बाड़ी की आमदनी से फ़ायदे का हक़ सिर्फ दारूल उलूम ताजुल मसाजिद भोपाल को है इसलिये अगर इस वक़्फ़ की रक़म दुकानों के निर्माण पर ख़र्च हो तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। इससे किसी न किसी तरह दारूल उलूम को ही फ़ायदा होगा। साथ ही वक़्फ ज़राअत मोहम्मदिया बाड़ी की असल रक़म महफूज़ भी रहेगी। और जब दारूल उलूम, वक़्फ ज़राअत मोहम्मदिया बाड़ी का क़र्ज़ अदा कर देगा तो उस व़क्फ़ के लिये अलग से कोई जायदाद हासिल की जा सकेगी। दूसरी तरफ दारूल उलूम के लिये अपनी नई बनाई गई जायदाद की आमदनी से दारूल उलूम ताजुल मसाजिद की ज़रूरतें पूरी होना मुमकिन हो जायेगा।
इस तरह यह मंसूबा हर तरह से इनशा अल्लाह मेहफूज़, फायदामेंद और अमल के लायक साबित होगा। अगर अधिकारिक परिषद भी इस मन्सूबे से इत्तेफाक़ करती है तो कमेटी इंतेज़ामिया वक़्फ़ ज़राअत मोहम्मदिया बाड़ी से क़र्ज़ हासिल करने की दरख़्वास्त की जाये।
यह प्रस्ताव इत्तेफ़ाक़े राय से मंजूर हुआ के ताजुल मसाजिद की ज़मीन के निर्माण के लिए वक़्फ़ ज़राअत मोहम्मदिया बाड़ी से पांच लाख रूपये, पचास हज़ार रूपये साल अदा करने के वादे के साथ क़र्ज़ लेने की कार्यवाही की जाये अगर कमेटी वक़्फ़ ज़राअत मोहम्मदिया बाड़ी मन्ज़ूर करे तो यह रक़म ज़रूरी कार्यवाही के बाद क़र्ज़ हासिल कर लीया जाये।
दुकानें बनाने की अनुमति और काम की शुरूआत
ज़मीन पर क़ब्जा़ हासिल होते ही दुकानें बनाने की अनुमति लेने की कार्यवाही शुरू कर दी गई थी इस अनुमति में तरह तरह की कठिनाईयां और परेशानियां आती रहीं लेकिन मौलाना की पहुंच और उनके खि़दमत के जज़्बे की वजह से तमाम कठिनाईयां आसान होती गर्इं।
18 जून 1975 ई० को जनाब एम।एन।बुच साहब एडमिनिस्ट्रेटर नगर निगम और कमिश्नर टाऊन एण्ड कन्ट्री प्लानिंग को बाका़यदा दुकानें बनानें की अनुमति की दरख़्वास्त नक़्शे के साथ दी गई कई बार रद्दो बदल के बाद नक़्शा मंजूर हुआ।
भारत के राष्ट्रपति जनाब फ़ख़रूद्दीन अली एहमद साहब ने 22 अक्टूबर 1975 ई० को इन दुकानों की तामीर (निर्माण) का संगे-बुनियाद (शिलान्यास) रखा लेकिन उस के बाद भी कई कठिनाइयां आती रहीं जिनकी वजह से मार्च 1976 ई० से पहले काम शुरू ना हो सका।
दुकानों के ऊपरी हिस्से के निर्माण की अनुमति
लगातार प्रयासों के नतीजे में मई 1978 ई० में ऊपरी मंजिल के निर्माण कि अनुमति हुकूमत और नगर निगम से मिल गई उस वक्त दारूल-उलूम के अध्यक्ष चंदे के लिऐ इंग्लैंड के दौरे पर गये हुए थे।
दारूल-उलूम के इन्चार्ज अध्यक्ष मौलाना सैयद मंजूर हुसैन सरोश साहब, दूसरे ज़िम्मेदार और अधिकारिक परिषद के लोग पैसा ना होने के बावजूद प्रयास कर रहे थे कि जिस तरह भी हो जल्द से जल्द ऊपरी मंज़िल का निर्माण कर लिया जाये वर्ना वक़्त के उतार चढ़ाव और हुकूमतों की तब्दीलियों की वजह से निर्माण की अनुमति कैंसिल होने का ख़तरा था। 25 दिसम्बर को हुए जलसे में इस सिलसिले की दिलचस्प और तफ़सीली याददाश्त पेश की गई है।
दारूल-उलूम ताजुल मसाजिद की अधिकारिक परिषद के सम्मानीय सदस्यों को याद होगा के पहले इस इमारत की दोनों मंजिलों के निर्माण की अनुमति मिल गई थी बाद में ऊपर की मंज़िल की अनुमति कैंसिल कर दी गई साथ ही नीचे की मंज़िल के दक्षिण ब्लाक का निर्माण शुरू ना करने के लिये ज़बानी सलाह दी गई। 5 मई 1978 ई० को हुई अधिकारिक परिषद की मीटिंग में तय किया गया कि दक्षिण ब्लाक के नीचे की मंज़िल की अनुमति कैंसिल नहीं हुई है। इसलिए इस ब्लाक का निर्माण फौरन कर लिया जाये। जब निर्माण हो गया तो ऊपरी मंज़िल के निर्माण की अनुमति का मामला मौजूदा हुकूमत के सामने पेश कर दिया गया था और फिर ख़ुदा के करम से मई 1978 ई० में ऊपरी मंज़िल के निर्माण की अनुमति हुकूमत से मिल गई मगर नगर निगम से भी कानूनी अनुमति बहाल करने की मंज़ूरी हासिल करना ज़रूरी था। लेकिन उससे पहले ही दारूल-उलूम के अध्यक्ष इंग्लैंड के दौरे पर रवाना हो गए उनके जाने के बाद नगर निगम से भी बा-क़ायदा अनुमति हासिल हो गई।
निर्माण की अनुमति तो हासिल हो गई लेकिन सवाल यह था की निर्माण के ख़र्च का इंतेजाम कैसे किया जाये? ताज मार्केट बनाने के लिए जो पांच लाख रूपये क़र्ज़ लिये गये थे वो नीचे की मंज़िल बनाने में ख़र्च हो चुके थे और दारूल-उलूम के पास इतनी रक़म न थी के जो ऊपरी मंज़िल के निर्माण के लिए क़ाफी हो इस के लिए भी लगभग पांच लाख रूपये की ज़रूरत थी। ताजुल मसाजिद के निर्माण की मद में लगभग 34 हजार रूपये मौजूद थे मगर यह रक़म ख़ुद ताजुल मसाजिद के निर्माण के लिये भी क़ाफी नहीं थीं, एक तरफ़ यह परेशानियां थीं और दूसरी तरफ़ यह ज़रूरी था की किसी भी तरह ऊपरी मंज़िल का निर्माण फौरन कर लीया जाये। वर्ना अगर खुदा ना करे यह मौका हाथ से निकल गया या कोई तब्दीली आ गई तो फिर ऊपरी मंज़िल का निर्माण का काम लंबे वक़्त तक रूक जाने का डर है। एक कठिनाई यह थी कि दारूल-उलूम के अध्यक्ष के मौजूद ना होने की वजह से वह लोग जो भोपाल में दारूल-उलूम का काम देख रहे थे कोई बड़ा क़दम उठाने का फै़सला नहीं कर पा रहे थे। लेकिन तमाम कठिनाइयों के बावजूद यह तय पाया कि ऊपरी मंज़िल का निर्माण हर सूरत में पूर्ण होना चाहिये।
दारूल-उलूम ताजुल मसाजिद के उद्दश्यों में एक उद्देश्य यह भी है कि ताजुल मसाजिद का आम प्रबंधन उसका निर्माण व पूर्णता और उसके लिये वक्फ संपत्ति का निर्माण उसका जरूरी प्रबंधन और नये वक़्फ़ और आमदनी को हासिल करना और इंतेजाम। इस तरह ताजुल मसाजिद के लिये वक़्फ़ जायदाद के निर्माण का फेसला हर सूरत दारूल-उलूम ताजुल मसाजिद के उद्दश्यों के हिसाब से सही था। इसलिये दारूल-उलूम की कार्यक़ारी परिषद के उन सदस्यों से जो भोपाल में मौजूद थे। इनचार्ज अध्यक्ष ने मशवरा किया और यह तय हुआ कि ताज मार्केट के ऊपरी मंज़िल के निर्माण के लिये जितनी रक़म की ज़रूरत हो वह दारूल उलूम के फंड से बतौर क़र्ज़ लेकर ख़र्च की जाये और उसका हिसाब अलग रखा जाये। ताज मार्केट से आमदनी होने पर क़र्ज़ की रक़म अदा कर दी जाये।
सुल्तानिया रोड की तरफ दुकानों का निर्माण
1980 ई० में ठेले वाली सड़क की दुकानों के निर्माण का काम पूर्ण हो गया। म।प्र शासन से पट्टे के एग्रीमेंट में यह तय हुआ था कि दुकानें पहले चरण में ठेले वाली सड़क पर बनेंगी। उसके बाद सुल्तानिया रोड (रायल मार्केट के सामने) की तरफ़ दुकानें बनाई जायेंगी। इसीलिये जब इधर का काम पूरा हो गया तो दूसरी तरफ़ का काम शुरू करने की कार्यवाही शुरू हुई। इस ज़रूरत के लिये 12 जनवरी 1981 ई० को हुई अधिकारिक परिषद की मीटिंग में याददाश्त पेश की गई।
ताजुल मसाजिद परिसर की ज़मीन का जो एग्रीमेंट हुआ है उसके मुताबिक़ सबसे पहले ताजुल मसाजिद के दक्षिण की तरफ़ वाले मैदान के पूर्व में ठेले वाली सड़क की तरफ़ दुकानें बनाना और उसके बाद दक्षिण की तरफ़ वाले मैदान में सड़क के किनारे रायल मार्केट के सामने दुकानें बनाना तय हुआ था। ठेले वाली सड़क के किनारे पर दुकानें लगभग पूरी हो चुकी हैं और उनकी ऊपरी मंज़िल भी बन चुकी है। एग्रीमेंट के मुताबिक अब सुल्तानिया रोड पर रायल मार्केट की तरफ दुकानें बनाने की ज़रूरत है।
जिस तरह ताज मार्केट बनाने के लिये दारूल-उलूम के फ़ंड से रक़म क़र्ज़ लेकर निमार्ण कार्य कराया गया। उसी तरह सुल्तानिया रोड की तरफ दुकानें बनाई जायें।
इस तरफ़ भी दुकानें बनाने के सिलसिले में बहुत सी कठिनाइयां और रूकावटें सामने आई। लेकिन मौलाना की दुआओं, उनकी और उनके साथियों के प्रयासों से तमाम परेशानियां दूर होती गर्इं। 5 मई 1977 ई० की अधिकारिक परिषद की मीटिंग में दुकानें बनाने का जिक्र आया है।
ताजुल मसाजिद परिसर में दक्षिण की तरफ सुल्तानिया रोड पर दुकानों के निर्माण के सिलसिले में जो परेशानियां आईं और जिस तरह वह परेशानियां दूर हुईं उनके बारे में सदर साहब ने मीटिंग में आये हुए लोगों को बताया। कार्यक़ारी परिषद की कार्यवाहियों की तस्दीक़ भी इसी मीटिंग में कराई गई। जिसमें एक कार्यवाही उन दुकानों से मुताल्लिक़ थी।
ताजुल मसाजिद परिसर के अंदर दक्षिण की तरफ सुल्तानिया रोड पर जो दुकानें बन रही हैं उनके मुताल्लिक़ 5 मई 1977 ई० को यह तय किया गया कि इज्तिमा के फौरन बाद उन्हें बनाने का काम शुरू कर दिया जाये।
दुकानें किराये पर किसे दी जायें
हर काम अधिकारिक परिषद और कार्यक़ारी परिषद की मंजूरी से क़ायदे क़ानून के तहत किया गया ताकि उसमें कोई ग़लत या नाजायज़ लेन देन ना हो। यह मौलाना का सलीक़ा और तरीक़ा था। वक़्त वक़्त पर किरायादारों और किरायादारी की तफ़सीलात अधिकारिक परिषद की मीटिंगों में पेश की जाती रहीं। इस तरह 28 दिसंबर 1981 ई० की अधिकारिक परिषद की मीटिंग में जो तफ़सील पेश की गई वह इस तरह हैः
तय हुआ कि सुल्तानिया रोड पर जो दुकानें बन रही हैं, उनकी किरायेदारी के लिये, हर एक दुकान का सिक्यूरिटी डिपाज़िट रू 15000/- और हर दुकान लेने वाले से ऐडवांस किराया रू 5000/- निर्माण पुर्ण करने के वास्ते लिये जायें। इन दुकानों का किराया रू 800/- से रू 1000/- मासिक लिया जा सकता है।
यह भी तय हुआ कि अगर इन दुकानों को बनाने के लिये कोई व्यक्ति एक अच्छी रक़म बतौर तोहफा दे तो उनकी सिक्युरिटी डिपाज़िट की रक़म में मुनासिब रिआयत (छूट) दी जा सकती है। इसी तरह कार्यक़ारी परिषद ने 8 मार्च 1982 ई० को हुई मीटिंग में दुकानों की किरायेदारी के सिलसिले में कुछ उसूल तय किये और फिर 27 दिसंबर 1982 ई० को हुई अधिकारिक परिषद की मीटिंग में उनको पास किया गया। जिसकी तफ़सील इस तरह हैः
दुकानों की किरायेदारी के लिये उर्दू हिन्दी और अंग्रेज़ी अख़बारों में इश्तिहार दे कर दरख़्वास्तें मंगाई गईं और उन दरख़्वास्तों पर कार्यक़ारी परिषद ने ग़ौर किया। इस काम में जनाब अब्दुल रऊफ ख़ां (मालिक अहद ब्रदर्स) ने अपने क़ीमती मशवरों से पूरी मदद फरमाई। कार्यक़ारी परिषद ने दरख़्वास्तों की फेहरिस्त पर ग़ौर कर के पचास साठ भरोसे के लायक़ और हैसियत दार लोगों को चुना उन चुने हुए लोगों को लेटर जारी किये जिसमें साफ़तौर पर लिखा गया था कि, किरायेदारी की शर्तों की पाबंदी करना होगी।
सुलेमान हाल का निर्माणः
‘‘बज़्मे सुलेमान’’ यानी अल्लामा सैयद सुलेमान नदवी की सौ साला यादगार के मौके पर दारूल-उलूम में एक सेमिनार 4 से 6 दिसंबर 1985 ई० को आयोजित किया गया था। इस सेमिनार में जो प्रस्ताव पास हुए उनमें महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव जो दारूल-उलूम से मुताल्लिक़ था वह प्रस्ताव नं 12 था दारूल-उलूम ताजुल मसाजिद से दरख़्वास्त की जाती है कि वह सैयद साहब की यादगार के तौर पर एक लायब्रेरी बनाये।
मौलाना व्यवहारिक इंसान थे और इस सेमिनार की दावत भी उन्होंने ही दी थी इसलिये प्रस्तावों को पूरा करने में उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी को महसूस किया और इंतेकाल से पहले सुलेमान हॉल और लायब्रेरी का काम शुरू कर दिया था। फिर यह काम प्लानिंग के हिसाब से ही पूरा हुआ।
नये होस्टल का निर्माण
दारूल-उलूम ताजुल मसाजिद के शिक्षा व्यवस्था के विकास और छात्रों की बढ़ती हुई संख्या को देखते हुए एक नया होस्टल बनाने की ज़रूरत मेहसूस की गई। 19 अप्रेल 2015 ई० को अधिकारिक परिषद की मीटिंग में ऐसे होस्टल की ज़रूरत का प्रस्ताव पेश किया गया जो मार्डन शैली और छात्रों के लिये ज़रूरी सुविधाओं वाला हो। इस तरह दारूल-उलूम में मस्जिद की उत्तर दिशा में लगे तालाब किनारे होस्टल की एक नई बिल्डिंग बनाने का प्रस्ताव पास किया गया।
22 जनवरी 2017 ई० को उस वक़्त के अध्यक्ष जनाब पीर सईद मियां मुजद्ददी मरहूम के मुबारक हाथों से इस होस्टल का संगे बुनियाद (शिलान्यास) रखा गया। इस बिल्डिंग का नक़्शा इस तरह बनाया गया है कि दारूल-उलूम परिसर के पास वाले गड्ढे में इसकी दो मंजिलें रहें ताकि तीन मंजिला बिल्डिंग होने के बावजूद भी पश्चिम दिशा से अज़ीमुश्शान मस्जिद नज़र आती रहे। यह बिल्डिंग 71315 वर्ग फुट के एरिये पर बनाई गई है। इसकी हर मंज़िल में आधुनिक तर्ज़ का एक कमरा पर्यवेक्षक के लिये, छात्रों के लिये सहूलियतों वाले बड़े हाल और 40 शौचालय बनाये गये हैं। खूबसूरत लकड़ी की खिड़कियां, खूबसूरत फ़र्श और बेहतरीन डिज़ाइन इस बिल्डिंग की खूबसूरती में इज़ाफा कर रहा है। इस इमारत के पूर्ण होने पर 600 छात्र तमाम सुविधाओं के साथ आराम से रह सकेंगे। माहिरों के हिसाब से इस बिल्डिंग के निर्माण का बजट लगभग आठ करोड़ है।
पुरानी डी पी आई की जगह हासिल करना
ताजुल मसाजिद के पश्चिम की तरफ बग़ीया और डी पी आई के दफ़्तरों की हुकूमत से मांग की गई थी। क्योंकि असिल में यही वह जगह थी जहां शाहजहां बेगम के दौर में मदरसा जहांगीरिया के छात्र रहते थे। लेकिन मसला फ़ायनल हुआ तो हुकूमत ने यह जगह और उबैदिया स्कूल देने से इंकार कर दिया। मशवरा (परामर्श) में यह बात तय हुई कि फ़िलहाल जो ज़मीन मिल रही है उसको ले लिया जाये बाक़ी के लिये प्रयास जारी रहें।
जनाब इब्राहीम कुरैशी साहब अल्पसंख्यक आयोग के पुर्व अध्यक्ष के दिमाग़ में यह बात आई कि तमाम मुस्लिम संस्थाएं इसी परिसर में जमा कर दी जायें, पुलिस और पेरा मिलेट्री फोर्स के वहां रूकनें का ख़तरा भी टल जायेगा और मुसलमानों की तमाम संस्थाएं एक ही जगह जमा हो जायंगी। कुरैशी साहब बहुत बुध्दिजीवी, समझदार और मुसलमानों की समस्याओं से सच्ची हमदर्दी रखने वाले आदमी थे।
ख़ाली ज़मीन उसके ख़राब हाल 15 कमरे जिन पर सीमेंट की चादरें थी दारूल-उलूम को मिल गये बाक़ी बड़ी और अहम इमारतें, वक़्फ़ बोर्ड, मुतवल्ली कमेटी, हज कमेटी, मसाजिद कमेटी को दे दी गईं और मुसलमानों के तामाम दफ़्तर एक ही जगह जमा हो गये।
ताजुल मसाजिद के आसपास दक्षिणी और उत्तरी मैदान
ताजुल मसाजिद के दक्षिण में एक मैदान है। जो कि 12 एकड़ का है। इसी तरह उत्तर में भी एक मैदान है जो दो एकड़ का है। दारूल-उलूम को यह मैदान 25 साल सरकार से मुक़दमेबाज़ी के बाद, एक एग्रीमेंट के तहत लीज़ पर तीस साल के लिये नाम मात्र किराये पर हासिल हुए हैं। अब दुबारा 2004 ई० में और तीस साल बढ़ाये गये हैं। दारूल-उलूम ने दक्षिणी मैदान में दुकानें निर्माण कराई हैं जो आमदनी का ज़रिया हैं। इन दुकानों की ऊपरी मंज़िल पर दारूल-उलूम और इज्तिमा के लिये हाल बनवाए गये हैं। एक दीवार के ज़रिये दारूल-उल-उलूम को चारों तरफ से घेर दिया गया है।
उत्तर दिशा में छात्रों के लिये होस्टल बनाया गया है। दारूल-उल-उलूम की पूर्वी दिशा में भी एक मैदान है जो मस्जिद से लगा हुआ है और 1997 ई० में हुकूमत से हासिल हो गया है। यह डेढ़ एकड़ का है। इस मैदान में छात्रों का होस्टल, इनडोर गेम आदी भी बनवा दिया गया है। इस तरह दारूल-उलूम ताजुल मसाजिद एक बड़ा दीनी मदरसा बन गया है।
दारूल-उलूम ताजुल मसाजिद की स्थापना और मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब
एक जून 1949 ई० को नवाब हमीदुल्लाह ख़ां साहब के ज़माने में रियासत भोपाल का इंडियन यूनियन में विलय हो गया हिंदुस्तान एक आज़ाद लोकतांत्रिक देश बना जिसका मतलब यह हुआ कि यहां तमाम लोग और जातियां, धर्म संस्कृति और विचारधाराएं आज़ाद और खुद मुख़्तार होंगे। उनको अपनी धार्मिक और सामाजिक विशेषताओं और शैक्षिक व सांस्कृतिक पहचान की हिफ़ाजत और उसे मज़बूत करने का पूरा अधिकार होगा। क्योंकि राष्ट्रीय सेक्युलर सरकार देश की तमाम जातियों और धर्म के मानने वालों के लिये अलग अलग धर्म और आस्थाओं के हिसाब से शिक्षा का पाठ्यक्रम और व्यवस्था जारी नहीं कर सकती थी। सेक्युलर सिस्टम का यह नतीजा कुदरती था कि मुसलमान अपने तमाम दीनी व मज़हबी ओहदों सस्थाओं और शिक्षा केन्द्रों के जिम्मेदार खुद हों।
रियासत भोपाल में मुसलमानों और ग़ैर मुस्लिमों के कल्याण और धार्मिंक कामों का ख़र्च रियासत की तरफ़ से मिलता था। सेक्युलर हुकूमत की ज़िम्मेदारी थी कि सरकार तमाम इंसानी अधिकार और शिक्षा में बराबरी का दर्जा दे और सभी धर्म और समाज अपनी शिक्षा, अपनी धार्मिक किताबों का प्रकाशन और मज़हबी रस्मों और अपनी विशेष धरोहरों की हिफाज़त खुद करें। हिंदुस्तान की आज़ादी के बाद से नई शिक्षा को सब तक पहुंचाने के प्रयास किये गये। जिसके नतीजे में मज़हब से लापरवाही और उकताहट पैदा होना शुरू हुई। मुल्क के यह हालात थे जिनकी तरफ से सभी दर्दमन्द और फिक्रमंद दीनदार मुसलमान ख़तरा मेहसूस कर रहे थे। यह अहसास बढ़ता जा रहा था कि अगर मुसलमानों ने अपना दीनी शिक्षा का पाठ्यक्रम तैयार करके लागू नहीं किया तो उनकी आगे की नस्ल दीन से लापरवाह, ऐकीश्वर भक्ति छोड़ने वाली और अपनी मज़हबी विरासत से बेख़बर हो जायेगी। क्योंकि नई शिक्षा दिशा के बाद हम शिक्षित तो हो जायेंगे लेकिन खुदा को मानना और उसकी बंदगी करना छोड़ देंगे। इस चिंता और एहसास के तहत हज़रत मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब नदवी अज़हरी ने जो उस वक्त दारूल उलूम नदवातुल उलेमा लखनऊ के अधीक्षक व प्रबंधक थे और अपनी शैक्षणिक प्रतिभा के कारण यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि अचानक एक महान ऐतिहासिक क्रांति और इल्मी दीनी संस्थाओं पर से सरकार की सरपरस्ती ख़त्म हो जाने से समाज में कुछ ही दिनों में निराशा फैल जाती है और हम अपने चिंतन के आधार और इल्मी दीनी विरासत से वंचित हो जाते हैं।
मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब नदवी अज़हरी ने अपनी बैचेनी और फ़िक्र को अपने उस्ताद सैयद सुलेमान नदवी के सामने पेश किया। सैयद साहब मौलाना की इल्मी और संस्थागत विशेषताओं को जानते थे लेकिन चूंकि दारूल उलूम नदवातुल उलेमा लखनऊ भी उस वक्त बेशुमार सामाजिक व आर्थिक पेरशानियों का सामना कर रहा था जिसे वह बखूबी संभाल रहे थे। आखिरकार मौलाना अली मियां साहब के कहने पर सैयद साहब और हज़रत साहब ने आधा महीना लखनऊ और आधा महीना भोपाल रहने की एक ऐसी राह निकाली जिससे मौलाना भोपाल में एक दीनी व शैक्षणिक केन्द्र स्थापित करने की स्थिति में हो गये।
1948-1949 ई० से ही एक दीनी इदारा स्थापित करने के प्रयास शुरू हो चुके थे। उसी दौरान सैयद सुलेमान नदवी की अध्यक्षता में जामा मस्जिद भोपाल में आलिमों फाज़िलों का एक जलसा हुआ जिसमें हज़रत मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब की सरपरस्ती में नदवा की तरह एक दारूल उलूम स्थापित करने का फैसला किया गया यह संस्था मस्जिद शकूर ख़ां में एक जून 1949 ई० को स्थापित हो गया और दारूल उलूम भोपाल उसका नाम रखा गया।
13 महीने वहां रहने के बाद 4 शव्वाल 1369 हिजरी, (20 जुलाई 1950 ई०) को भोपाल की शानदार ताजुल मसाजिद में बाक़ायदा इसकी शुरूआत हुई जिसमें तमाम उलेमा और अवाम के बड़े तबक़े ने शिरकत की और दारूल उलूम ताजुल मसाजिद नाम रखा गया।
हज़रत मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां नदवी अज़हरी ने इसकी खि़दमत सिर्फ अल्लाह के लिये बग़ैर किसी तनख़्वाह या मुआवजे़ के अंजाम दी। और यह छोटा सा पौधा उनके साये में एक बहुत बड़ा सायादार और फलदार दरख़्त बन गया। दारूल उलूम के संस्थापक ने इसके पाठ्यक्रम और शिक्षा पद्धति में इस बात का पूरा ख़्याल रखा कि वह इस्लाम के बुनियादी उसूलों के मुताबि़क हो। इस्लाम इंसानी हिदायत का दस्तूर है और क़यामत तक आने वाली नस्लों के वैचारिक और व्यवहारिक विकास, वैज्ञानिक खोज और दिमाग़ में आने वाले सवालात का हल और जवाब इसमें मौजूद है। इसलिये इस्लाम के उसूलों में तो किसी तरह के बदलाव की गुंजाइश नहीं लेकिन वह बातें जिनका ताल्लुक़ बुनियादी आस्था से ना हो आरै कुछ विशेष चीज़ों में बदलती दुनिया के हालात के हिसाब से इसमें आगे बढ़ने की क्षमता मौजूद है यही वह उसूल थे जिन पर नदवातुल उलेमा की बुनियाद रखी गई थी। और दारूल उलूम ताजुल मसाजिद में भी यही फिक्र यही विचार लागू हैं।
दारूल उलूम ने पहले दिन से ही तीन अहम क़ामों की ज़िम्मेदारी कुबूल की और अपने हौसले भर उन्हें पूरा करता रहा।
शिक्षा
शिक्षा के विभाग में कुरआन को हि़फ़्ज (कंठस्थ) करने का इंतेजाम है। बाद के दर्जों में अरबी भाषा सिखाई जाती है। दीनी शिक्षा के साथ हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा और बुनियादी आधुनिक शिक्षा भी पाठ्यक्रम में शामिल है। यहां से सैकड़ों छात्र हाफ़िज और आलिम बनकर निकले हैं।
मिस्र के शिक्षक की आमदः
मौलाना इमरान ख़ाँ का जामिया अज़हर से बड़ा गहरा संबंध था। वह पहले ऐसे हिन्दुस्तानी छात्र थे जो यहां से जामिया अज़हर शिक्षा हासिल करने गये और वहां से बाक़ायदा ग्रेज्युएट की डिग्री हासिल की वर्ना उस से पहले जो छात्र जाते थे उनको अरबी में कम महारत होने की वजह से एक छोटी डिग्री दी जाती थी। मौलाना मरहूम ने अपने प्रयास, मेहनत और सलाहियत की बुनियाद पर ना सिर्फ ग्रेज्युएशन में दाखि़ला लिया बल्कि बहुत अच्छे नंबरों से पहली पोज़ीशन हासिल करके अपना मक़ाम बनाया और इसी वजह से जामिया अज़हर ने अपने ख़र्च पर उनको हज के लिये भेजा।
इसी संबंध की वजह से जब मौलाना 1968 ई० में लीबिया और अफ्रीका के दौरे पर गये तो मिस्र भी गये, जामिया अज़हर के शेख़ हसन मामून ने उनका शानदार इस्तक़बाल किया। उस मुलाक़ात में उन्होंने ख़्वाहिश ज़ाहिर की, कि एक अज़हरी उस्ताद दारूल उलूम ज़रूर भेजा जाये।
अलहम्दुलिल्लाह यह प्रयास कामयाब हुऐ और एक बहुत अच्छे बा सलाहियत अज़हरी नौजवान आलिम शेख़ मेहसूब अहमद इब्राहीम अल नजार, अज़हर के शैक्षणिक नुमाइन्दा बनकर भोपाल तशरीफ लाये उनकी मेहनत से दारूल उलूम के छात्रों में आधुनिक अरबी सीखने के लिये एक नया हौसला और शौक़ पैदा हुआ। शेख़ ने अरबी बोलने और लिखने के आधुनिक तरीक़े से छात्रों में नई योग्यताऐं पैदा कीं। वह कई बरस तक रहे और अपने अच्छे व्यवहार से दारूल उलूम ही नहीं भोपाल के लोगों का भी दिल जीत लिया और मौलाना की इस तमन्ना को भी पूरा किया कि दारूल उलूम को अंतर्राष्ट्रीय दर्जा हासिल हो वह दारूल उलूम जो बहुत ही छेोटे पैमाने पर शुरू हुआ था जिसमें सिर्फ सात छात्र और दो शिक्षक थे। वह थोड़े ही वक़्त में प्रदेश का अहम शिक्षा केन्द्र बन गया, तबलीग़ और नदवा से ताल्लुक़ ने इसको अलग शान और पहचान दिलाई। और यह सब असल में अल्लाह के फज़्लो करम और उसके एक मुख़लिस (निःस्वार्थ) बन्दे की बंदगी और ख़ास अल्लाह से संबंध की वजह से हुआ। इस दारूल उलूम से बेशक सैकड़ों छात्र और हाफिज़ निकले और अब वह अलग अलग क्षे़त्रों में खिदमत अंजाम देकर दारूल उलूम का नाम रोशन कर रहे हैं।
अहम कान्फ्रेंसें
इजलास वर्किंग कमेटी आल इंडिया तिब्बे यूनानी कान्फ्रेंस (16-17 मार्च 1974 ई०)
हिन्दुस्तान में मुसलमानों के इल्मो-फ़न की महानता की एक निशानी यूनानी इलाज का तरीक़ा भी है। वक़्त के साथ उसकी अहमियत पर लापरवाही की गर्द जमने लगी। इस आईने को साफ़ करने के लिये आल इंडिया तिब्बे यूनानी कान्फ्रेंस लगातार प्रयास करती रही। उसकी वर्किंग कमेटी ने तय किया कि एक इजलास भोपाल में हो और भोपाल में ताजुल मसाजिद की केन्द्रीय भूमिका होने की वजह से इसका इजलास वहीं पर हो। इसलिये जिम्मेदार लोगों ने मौलाना से बात की तो उन्होंने इसके लिये खुश आमदीद कहा। यह इजलास 16-17 मार्च 1974 ई० को यहां पर हुआ जिसका विषय यूनानी इलाज और उसकी तरक्क़ी था। 16 मार्च को उसकी वर्किंग कमेटी का इजलास नामवर हकीम अब्दुल हमीद, मुतवल्ली हमदर्द (वक़्फ़) की सदारत में हुआ 17 मार्च को यूनानी इलाज की तरक्क़ी के सिलसिले में हुई कान्फ्रेंस के जलसे की सदारत भी हकीम अब्दुल हमीद साहब ने की।
इस कान्फ्रेंस में शायद पहली बार हिन्दुस्तान के तमाम हकीम जमा हुए। भोपाल में अभी इलाज के इस पुराने तरीक़े की निशानियां बाक़ी थीं। यहां के हक़ीमों ने बड़ी तादाद में शिरकत की। काफी समय तक इस कान्फ्रेंस की चर्चा रही। कान्फ्रेंस में यह प्रस्ताव मंजूर किया गया कि म।प्र। सरकार को यूनानी इलाज के तरीके़ को आगे बढ़ाने के प्रयास करना चाहियें। शरीक होने वाले तमाम लोगों ने दारूल उलूम के बेहतरीन प्रबंधन को सराहा और इस कान्फ्रेंस को आयोजित करने पर शुक्रिया अदा किया और कामयाबी पर मुबारकबाद दी। इस कान्फ्रेंस की बरकत यह है कि म।प्र। में यूनानी दवाखानों का वजूद हिन्दुस्तान के दूसरे प्रदेशों से ज्यादा और हकीमों की तादाद दवाख़ानों में ज़्यादा नज़र आती है। इस कान्फ्रेंस को कामयाब बनाने में मौलाना सलमान साहब आगे आगे थे।
ऑल इंडिया इस्लामिक स्टडीज कान्फ्रेंस का सातवां इजलास 9-11 सितंबर 1974 ई०
इस्लामिक स्टडीज़ कान्फ्रेंस की स्थापना 1958 ई० में मुस्लिम युनीवर्सिटी अलीगढ़ में रखी गई थी। उस वक़्त से आमतौर पर हर दो साल में इसके जलसे होते रहे।
1958 ई०, 1960 ई०, 1962 ई० के तीनों जलसे अलीगढ़ में हुए। चौथा जलसा जामिया उस्मानिया की दावत पर 1964 ई० में हैदाराबाद में हुआ। पांचवां जलसा जामिया मिल्लिया इस्लामिया दिल्ली में 1967 ई० में। छटा जलसा दारूल मुसन्निफ़ीन आज़मगढ़ में 1969 ई० में हुआ। सातवां जलसा दारूल उलूम नदवातुल उलेमा लखनऊ में होना तय हुआ था लेकिन कुछ कारणों से चार साल तक टलता रहा।
आख़िरकार कान्फ्रेंस के ज़िम्मेदारों के कहने और मौलाना अली मिंयाँ की सिफारिश पर मौलाना इमरान खां साहब ने दारूल उलूम ताजुल मसाजिद में इसको आयोजित किया और उसकी तारीखें 9,10,11 सितंबर 1974 ई० तय हुईं।
इस जलसे में 55 उलेमा और विद्वान शामिल हुए, कान्फ्रेंस के अध्यक्ष प्रोफे़सर अब्दुल अलीम साहब अपनी सेहत की ख़राबी की वजह से शरीक न हो सके। मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी साहब ने कान्फ्रेंस का उद्घाटन किया। मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब ने कलीदी ख़ुत्बा (बीज वक्तव्य) दिया जिससे सभी शामिल होने वाले प्रभावित हुए।
तीन दिन के इस जलसे में कुल 27 पेपर (10, अंग्रेजी, 9 उर्दू, 6 अरबी, और 2 फारसी में पढ़े गये) 11 सितंबर 1974 ई० को आखिरी जलसा हुआ। प्रो० सै० मकबूल अहमद साहब जनरल सेक्रेटरी कान्फ्रेंस ने जहां अली मियां और तमाम शामिल होने वाले लोगों का शुक्रिया अदा किया वहीं यह जुमले भी उनकी ज़बान से निकले जिनको ‘मुनाजाते मक़बूल’ (खुदा द्वारा सुनी गई दुआ) भी कहा जा सकता है। अपने समय के एक विद्वान की ज़बान से मौलाना की खिदमत का ऐसा सच्चा एतराफ (स्वीकारोक्ति) और तारीफ, दरअसल उलेमा की जमात के लिये आदरांजलि थी। उन्होंने कहा, ‘‘सर सैयद का प्रस्ताव एक मदरसा कायम करने का था और वह एक मदरसातुल उलूम की हैसियत से शुरू हुआ था। लेकिन 1920 ई० में ऐसे हालात पैदा हुए कि उसको यूनीवर्सिटी का दर्जा दे दिया गया। वह दारूल उलूम मुसलमानाने हिन्द के नाम से मशहूर था। और उसमें इस्लामी दर्शन, इल्मे कलाम, और अरबी भाषा व साहित्य की शिक्षा होती थी।
यही सब आज मैं इस दारूल उलूम ताजुल मसाजिद में देख रहा हूँ। अगर मौलाना इमरान साहब की तवज्जो रही तो वह दिन दूर नहीं कि जब इस मस्जिद में स्थापित यह दारूल उलूम एक शानदार शिक्षा केन्द्र होगा। और वह हिन्दुस्तान के लिये खुशी और मुसलमानों के लिये फ़ख्ऱ की वजह होगा।
इस वजह से मैं यह समझता हूँ कि मौलाना इमरान खां साहब ना सिर्फ ‘‘शाहजहाने सानी’’ हैं बल्कि वक़्त के ‘‘ सर सैयद’’ भी हैं। और यह दर्जा बहुत कम लोगों को हासिल होता है। हम लोग तो सिर्फ पढ़ने पढ़ाने वाले लोग हैं। और उसी में मसरूफ रहते हैं। लेकिन निर्माण कार्य कराना और उसे पूर्ण भी कराना बहुत कठिन काम है। हमने अलीगढ़ में इस कान्फ्रेंस के तीन जलसे किये और हम अच्छी तरह जानते हैं कि इस तरह के जलसों के आयोजन में कितनी कठिनाईयां और परेशानियां आती हैं। इन तमाम कठिनाईयों को देखते हुए जब इस कान्फ्रेंस के बेहतरीन इंतेजाम सलीक़ा और कामयाबी को देखते हैं तो खुलकर तारीफ़ करने को दिल चाहता है और इसका सेहरा (श्रेय) भी मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब और उनकी बेहतरीन सलाहियतों के सर बंधता है।
आखि़र में जलसे के अध्यक्ष मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी ने जलसे की कामयाबी पर अपनी खुशी और संतुष्टि जा़हिर की।
इस जलसे को कामयाब बनाने में डा० मसूदुर्रेहमान साहब नदवी का बड़ा हाथ था। उन्होंने इस सेमिनार की कार्यवाही को निशाने मंज़िल के ख़ास शुमारे (अंक) आल इंडिया इस्लामिक स्टडीज़ कान्फ्रेंस की यादगार के नाम करके उसे मेहफूज़ कर दिया। उसकी हैसियत अब एक इल्मी दस्तावेज़ की हो गई है।
बज़्मे सुलेमानी सौ साला सालगिरह अल्लामा सै० सुलेमान नदवी 4-6 सितंबर 1985 ई०
यह सेमिनार जो अल्लामा सैयद सुलेमान नदवी के नाम से है। यह उनकी सौ साला सालगिरह के मौक़े पर आयोजित होने वाले सेमिनारों और कान्फ्रेंसों की आख़िरी कड़ी थी। जो 4 सितंबर 1985 ई० से शुरू होकर 6 सितंबर को ख़त्म हुआ।
अल्लामा सै० सुलेमान नदवी का शुमार पूर्वी इतिहास, ज्ञान और साहित्य व दीन और विदवत्ता की उन चंद महान हस्तियों में है जिनकी इल्मी अदबी और दीनी व सामाजिक सेवाओं की मान्यता में ना समय आड़े आया और न उनके बाद उनकी इज़्ज़त में कोई कमी आई बल्कि वक़्त के गुज़रने के साथ-साथ अक़ीदत और मुहब्बत के जज़्बात उनके लिये बढ़ते चले गये। जिसका बे लौस नज़ारा उनकी पहली सौ साला सालगिरह के मौक़े पर देखने को मिला। जब भारतीय उप महाद्वीप में ही नहीं बल्कि फ्रांस में भी उनकी खुशगवार याद में जलसे हुए। पाकिस्तान में भी इस सिलसिले में कई जलसे हुए। इसी तरह फ्रांस में डा० मोहम्मद हमीदुल्लाह साहब (जो सैयद साहब से बहुत प्रभावित थे) के प्रयासों से कई कार्यक्रम हुए। जिनमें उपमहाद्वीप के कई लोगों ने शिरकत की। फ्रांस के सरक़ारी टेलीविज़न पर अल्लामा के इल्मी अदबी कामों पर एक खूबसूरत प्रोग्राम दिखाया गया। हिन्दुस्तान में इन कार्यक्रमों की शुरूआत का सेहरा अलीगढ़ मुस्लिम युनीवर्सिटी के सर बंधा और 25 नवंबर 1983 ई० को दो दिवसीय परिचर्चा का आयोजन किया गया उसके बाद बिहार अकेदमी ने एक तीन दिवसीय सेमिनार एक से तीन दिसंबर 1984 ई० को पटना में आयोजित किया। इसी मुबारक सिलसिले का तीसरा दो दिवसीय कार्यक्रम ‘‘कुल हिन्द अंजुमन तरक़्क़ी हिन्द’’ द्वारा उर्दू घर दिल्ली में 9 से 10 मार्च 1985 ई० को आयोजित किया गया।
सौ साला कार्यक्रमों के आल इंडिया प्रोग्रामों का आखि़री प्रोग्राम दारूल उलूम ताजुल मसाजिद द्वारा तीन दिवसीय बज़्मे सुलेमानी 4 से 6 सितंबर 1985 ई० का इल्मी व अदबी जश्न था जो अल्लामा के शागिर्द मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां नदवी द्वारा आयोजित किया गया।
सम्मानीय अम्ऱ मूसा (भारत में मिस्र के राजदूत) मुख्य अतिथि थे। आली जनाब हाशिम अली (वाइस चांसलर अलीगढ़ मुस्लिम युनीवर्सिटी) ने बज़्म का उद्घाटन किया और दारूल मुसन्निफ़ीन के प्रबंधक सबाहुद्दीन अब्दुल रहमान ने बीज वक्तव्य दिया।
यह कार्यक्रम दर असल आलिम बिरादरी की तरफ से अल्लामा की अविस्मरणीय इल्मी अदबी दीनी और सामाजिक सेवाओं पर श्रद्धांजलि पेश करने के लिये किया गया था। लेकिन दीगर क्षेत्रों के ज्ञानी और चिंतकों का भरपूर प्रतिनिधित्व इसकी ख़ास बात थी। इस यादगार बज़्म के लिये पचास क़लमक़ारों ने शानदार पेपर लिखे। जिसमें अल्लामा सैयद सुलेमान नदवी के इल्म और फ़न को उजागर किया गया था।
इस मुबारक मौके़ पर एक शानदार प्रदर्शनी का भी प्रबंधन किया गया था जिसका प्रबंध सैफिया कालेज के उस्ताद, प्रोफेसर अब्दुल क़वी दसनवी के ज़िम्मे था। खा़नक़ाहे मुजद्ददिया के सर परस्त जो बाद में दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के अध्यक्ष हुए मौलाना मोहम्मद सईद साहब मुजद्ददी द्वारा इस प्रदर्शनी का उद्घाटन किया गया। इसमें अल्लामा की किताबें ख़त, फ़तवे, अदालती फ़ैसले वग़ैरह को जमा किया गया था। उनके बारे में उस वक़्त के आलिमों, अदीबों और अहम लोगों की राय लिखकर लगाई गई थीं।
इस सेमिनार में दारूल मुसन्निफीन आजमगढ़, दारूल उलूम नदवातुल उलेमा लखनऊ, मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़, जामिया मिल्लिया इस्लामिया दिल्ली, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी दिल्ली, बरकतउल्लाह यूनिवर्सिटी भोपाल और भोपाल के दीगर ज्ञान केंद्रों के लोग शामिल हुए।
पेपर पढ़ने के सत्र की शुरूआत 4 सितंबर 1985 ई० को ज़ोहर की नमाज़ के बाद हुई और 5-6 सितंबर को सुबह और ज़ोहर की नमाज़ के बाद दो सत्र हुए। इस तरह पांच सत्रों में कुल 30 पेपर पढ़े गये। शुरू में काफ़ी वक़्त चर्चा-परिचर्चा मे लग गया बाकी 20 पेपर पढ़े नहीं जा सके लेकिन बज़्म की कार्यवाही में दाखि़ल कर लिये गये। पेपर्स के अलग-अलग टाइटल और उनकी इल्मी व तहक़ीक़ी सतह से अल्लामा के इल्म और महारत का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। तीनों दिन हर सत्र में प्रतिनिधियों और विचार और दृष्टि रखने वाले लोग जिस दिलचस्पी और बाध्यता से शामिल होते रहे और पेपर्स को सुनते रहे वह आमतौर पर सेमिनारों में देखने को कम मिलता है। तीसरे दिन के सत्र के अध्यक्ष अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के वाइस चांसलर सैयद हाशिम अली साहब के अल्फा़ज़ सभी प्रतिनिधियों के अहसास के तर्जुमान हैं। पेपर्स में जो कुछ पढ़ा गया वह सैयद साहब के इल्मी व दीनी कारनामों, क़ौमी और समाजी खि़दमात और उनकी साहित्यिक शख्सियत को उजागर करने के लिये काफ़ी था।
मौलाना इमरान ख़ां साहब पर इस सेमिनार को आयोजित करने का बड़ा दबाव था हालांकि उनकी सेहत इस लायक़ ना थी लेकिन सैयद साहब से अक़ीदत और ताल्लुक़ का तक़ाज़ा था कि जल्द से जल्द यह बज़्म आयोजित हो इसलिये कमज़ोरी और ख़राब सेहत के बावजूद हर बात की निगरानी और हर बात का इंतेजाम खुद फरमाते थे।
प्रो० मसूदुर्रेहमान खां नदवी अजंहरी (अध्यक्ष वेस्ट ऐशियन इस्टेडीजं अलीगढ मुसलिम यूनिवर्सिटी) साहब बज़्म की रिपोर्ट में लिखते हैं कि मोहतरम इमरान ख़ां नदवी की कदम कदम पर रेहनुमाई का जिक्र ज़रूरी है। सेहत की मौजूदा हालत में भी उन तीनों दिनों में आप ने खुद उनके प्रफुल्ल मनोभाव व महान साहस के जीते जागते मज़ाहिरे देखे, हक़ीक़त यह है कि इस बज़्म का आयोजन साफ तौर पर उनके दिली जज़्बात की मिसाल है। जिसका बोझ उनके दिलो दिमाग पर महीनों से था और जिसने आखि़र में इतनी शिद्दत इख्तियार कर ली कि उसमें और देरी मुमकिन ना थी। प्रो० मसूदुर्रेहमान साहब जो बज़्म के संचालक थे इस बज़्म की तैयारी और आयोजन में उनका ही हाथ रहा है। इसके अलावा जितने भी इल्मी सेमिनार और कान्फ्रेंसें हुई उनमें मौलना के बाद अगर कामयाबी का सेहरा किसी के सर बांधा जा सकता है तो वह मसूदुर्रेहमान साहब ही हैं। इसीलिये बज़्म की रिपोर्ट लिखने वाले प्रोफेसर इक़बाल अहमद अंसारी ने बज़्म की रिपोर्ट में बिल्कुल सही लिखा है।
‘‘जब डा० मसूदुर्रेहमान ख़ां साहब नदवी (बज़्म के संचालक) अपनी रिपोर्ट पढ़ने खड़े हुए तो तमाम लोगों को एहसास था कि बज़्म के आयोजक के इरादे और हौसले के बाद बज़्म की कामयाबी में इनके प्रयासों का बड़ा रोल है।
दारूल उलूम ताजुल मसाजिद में राब्ता अदबे इस्लामी की सातवीं सालाना इल्मी कान्फ्रेंस
दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के ज़ेरे एहतिमाम (तत्वावधान) और सहयोग से राब्ता अदब इस्लामी (शाखे़हिन्द) की सातवीं सालाना इल्मी व अदबी कान्फ्रेंस 4,5,6 रबीउस्सानी 1412 हिर्जी, 13,14,15, अक्टूबर 1991 ई० को दावती और इस्लाही अदब के विषय पर आयोजित हुई। जिसमें उर्दू में 29 और अरबी में 10 पेपर प्रस्तुत किये गये।
13 अक्टूबर को सुबह 10 बजे राब्ता अदब इस्लामी के अध्यक्ष मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी ने जलसे का उद्घाटन किया। राब्ता आलमे इस्लामी के नुमाइंदे शेख़ मोहम्मद बिन नासिर अलअबूदी ने जो ख़ास इसी मक़सद के लिये सऊदी अरब से आए थे उद्घाटन सत्र में तक़रीर की। दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के वर्किंग अध्यक्ष और शिक्षा सचीव मौलाना हबीब रेहान नदवी अज़हरी ने स्वागत भाषण दिया, मौलाना सईद मियां मुजद्ददी और दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के उप प्रबंधक मोहम्मद लुक़मान ख़ां नदवी ने मेहमानों और प्रतिनिधियों का शुक्रिया अदा किया।
उद्घाटन सत्र के पश्चात, मग़रिब की नमाज़ के बाद और दिन में 9 बजे से 11 बजे तक फिर 11:30 बजे से 1:30 बजे तक पेपर पढ़ने के यह सत्र तीन दिन तक होते रहे।
इन इल्मी मजलिसों की अध्यक्षता: मौलाना अब्दुल रशीद नोमानी (पाकिस्तान) मौलाना अब्दुल्लाह अब्बास नदवी, प्रोफेसर ज़िया उल हसन फ़ारूक़ी, मौलाना सईदुर्रेहमान आज़मी नदवी, प्रो० मोहम्मद राशिद नदवी ने की। संचालन: मौलाना सैयद मोहम्मद राबे हसनी नदवी, मौलाना अब्दुल नूर नदवी, डा० यासीन मज़हर सिद्दीकी और मौलाना सैयद शराफ़त अली नदवी ने किया। हर इल्मी मजलिस के ख़त्म पर सवाल जवाब का सिलसिला भी रहा। राब्ता अदबे इस्लामी के जर्नल सेकट्री मौलाना सैयद मोहम्मद राबे हसनी नदवी उनके निकट सहयोगी मौलाना अब्दुल नूर नदवी के अलावा प्रोफेसर ज़ियाउल हसन फ़ारूक़ी और मौलाना अब्दुल्लाह अब्बास नदवी ने अदब के जमालियाती (सौन्दर्य) और नज़रियाती (सेद्धांतिक) पहलूओं पर बज़्म में शामिल लोगों के सवालों के जवाब दिये और राब्ता अदब इस्लामी की स्थापना की पुष्ठभूमि, कारण और आवश्यकताएं और इतिहास पर रोशनी डाली।
समापन सत्र की अध्यक्षता मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी ने की। उन्होंने अपनी असरदार और ताक़तवर तक़रीर में अदीबों, दानिश्वरों और क़लमकारों से उम्मीद जताई कि वह ना सिर्फ साहित्य सुधार के काम को आगे बढाएंगे बल्कि अदब के नाम पर जारी बेअदबी और हाकिमाना नज़रिये को भी ख़त्म करने के प्रयास करेंगे।
भोपाल में मौलाना सैयद अबुल हसन अली नदवी की आमद का फायदा उठाकर भोपाल के लोगों ने 12 अक्टूबर की शाम को “पयामे इंसानियत” का जलसा भी आयोजित किया था। उस जलसे में मौलाना ने तक़रीर की। कान्फ्रेंस में आए तमाम लोगों और प्रतिनिधियों ने कान्फ्रेंस के दौरान दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के प्रबंधन और मेहमान नवाज़ी को बहुत सराहा।
दारूल उलूम ताजुल मसाजिद की शैक्षणिक सेवाएं
दारूल उलूम ताजुल मसाजिद को स्थापित हुए 71 साल हो रहे हैं। इस वक़्त में दारूल उलूम ने जो सेवाएं दी हैं वह कुछ इस तरह से हैं:
अब तक यहां से लगभग 1000 से ज़्यादा छात्र शिक्षा पूर्ण कर के निकले हैं और दारूल उलूम नदवातुल उलेमा लखनऊ और दूसरे शिक्षा केन्द्रों से उच्च शैक्षणिक उपाधियां प्राप्त कर चुके हैं। 1986 से पहले दारूल उलूम ताजुल मसाजिद में डिग्री नहीं दी जाती थी बल्क़ि छात्र नदवातुल उलेमा या दारूल उलूम देवबंद और सहारनपूर या अरब मुल्कों में जा कर अपनी शिक्षा पूर्ण किया करते थे। लेकिन अब ज्ञानी (आलिमियत) की डिग्री दारूल उलूम ताजुल मसाजिद से ही दी जाती है।
इस वक़्त हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान के बाहर शायद ही कोई जगह ऐसी हो जहां दारूल उलूम से उत्तीर्ण (पास आउट) छात्र इल्मेदीन की सेवा ना कर रहे हों। इस तरह पंद्रह सौ से ज़्यादा छात्र कुरआन मजीद हि़फ़्ज (कंठस्थ) करके निकल चुके हैं। उन उत्तीर्ण छात्रों में से एक अच्छी तादाद उनकी भी है जिन्होंने अपने अपने इलाक़ों में मदरसे और हिफ़्ज़े कुरआन के केन्द्र स्थापित किये हैं। और दिलोजान से सेवा में लगे हुए हैं।
दीनी और सांस्कृतिक जागरूकता
दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के ज़रीये 71 साल में जो सेवा अंजाम दी गई और इस मुद्दत में जो दीनी और सांस्कृतिक जागरूकता आई उसका असर पूरे मध्यप्रदेश में और ख़ास तौर पर भोपाल में हर समझदार व्यक्ति को नज़र आयेगा। दारूल उलूम की देखरेख में सालाना तब्लीग़ी इज्तिमा इस शहर में 1948 ई० से 2002 ई० तक लगातार होता रहा है। दारूल उलूम इस ज़बर्दस्त इज्तिमा को सफल बनाने का हर संभव प्रयास किया करता था।
विश्वविद्यालयों और इस्लामी शिक्षा केन्द्रों से संबद्धता
दारूल उलूम ताजुल मसाजिद ने शुरू से ही, हिन्दुस्तान में संस्थानों और इस्लामी केन्द्रों से संबंध रखा था। मध्यप्रदेश के बहुत से छोटे और दरम्यानी मदरसों की संबद्धता दारूल उलूम से है। और बहुत से दूसरे कुछ और मदरसे दारूल उलूम से संबद्ध बनाने का प्रयास कर रहे हैं। और इस सिलसिले में कार्यवाही जारी है। दारूल उलूम ताजुल मसाजिद का रिश्ता दारूल उलूम नदवातुल उलेमा से पहले दिन से ही है। इस तरह जामिया अज़हर से भी दारूल उलूम के बहुत पुराने रिश्ते हैं। दारूल उलूम के संस्थापक हज़रत मौलाना मोहम्मद इमरान खां साहब नदवी ने जामिया अज़हर से ही अपनी शिक्षा पूर्ण की थी। दारूल उलूम के कुछ उस्तादों को भी जामिया अज़हर से डिग्री मिली है। हमारे छात्र भी जामिया अज़हर जाते हैं। अज़हर की तरफ से दो शिक्षक यहां सेवा दे चुके हैं। पहले उस्ताद मेहसूब अलनज्जार थे। जिन्होंने दो साल तक छात्रों को पढ़ाया। दूसरे उस्ताद अब्दुल फत्ताह अली रज़क़ थे जिन्होंने चार साल तक यहां पढ़ाया।
अलीगढ़ यूनीवर्सिटी ने हमारी डिग्री को ‘‘बी.ए.’’ के बराबर मान्यता दे दी है। दीनियात, इस्लामियात अरबी और यूनानी मेडिकल की डिग्री के लिये यहां के छात्र प्रवेश ले सकते हैं।
तबलीग़
यह बात साफ है कि दीनी इल्म की शिक्षा और उसका प्रसार अपने आप में इस्लाम की तबलीग़ और प्रसार का माध्यम है। लेकिन बा-क़ायदा तबलीग़ के नज़रीये से 1948 ई० से 2002 ई० तक सालाना तब्लीग़ी इज्तिमा इस मस्जिद में होता रहा है। जिसकी पूर्ण वयवस्था दारूल उलूम की तरफ से की जाती थी और दारूल उलूम ताजुल मसाजिद के छात्र लगातार तब्लीग़ी इज्तिमा में भागीदारी करते और जमातों में निकलते रहे हैं।
हज़़रत मौलाना इमरान ख़ां साहब का दावत-व-तब्लीग़ से जुड़ाव और उनके प्रयासों की वजह से बहुत तेज़ी से भोपाल और उसके आसपास के इलाक़ों जैसे अमरावती, बरार और इन्दौर, उज्जैन वग़ैरह में मज़बूती के साथ इस काम को ऐसी तरक्की मिली कि 1948-1949 ई० तक दिल्ली और मेवात के बाद भोपाल ही इसका सबसे मज़बूत किला बन चुका था।
मौलाना इल्यास साहब ने 1926 ई० में दावत व तब्लीग़ का काम मेवात से बड़ी सरगर्मी के साथ शुरू किया धीरे धीरे इस काम से परिचय होने के बाद कुछ बड़े उलेमा भी इस काम से जुड़ गये। इस सिलसिले में 1940 ई० में पहली बार हज़रत मौलाना अली मियाँ साहब की मौलाना इल्यास साहब से मुलाक़ात हुई और मौलाना अली मियाँ इस काम से जुड़े और अपने जानने वाले लोगों के बीच इस काम की दावत शुरू कर दी।
मौलाना इमरान ख़ां साहब के तबलीग़ से संबद्ध का शुभारंभ
मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां साहब नदवी का क्योंकि मौलाना अली मियां से बहुत क़रीबी संबद्ध था इसलिये उनकी दावत को मौलाना ने खुशी से कुबूल किया और इस संगठन से ऐसे जुड़े कि लखनऊ और आसपास के तमाम इज्तिमाओं और दावत के काम में शरीक होते रहे। मौलाना अली मियां ने लिखा है कि वह मेवात के अहम दौरों और जलसों में भी शिरकत के प्रयास करते। इन दौरों में ज्य़ादातर मौलाना इमरान ख़ां साहब साथ रहते जिसकी वजह से हज़रत की उनसे निकटता हुई और उनको खुद हज़रत के साथ रहने और इस दावत व अमल से बड़ा फायदा हुआ। जिसका नतीजा यह हुआ कि वह भोपाल में इस धार्मिक संगठन के प्रथम निदेशक और वहां उस तबलीग़ी इज्तिमा का ज़रिया बने जो हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा तबलीग़ी इज्तिमा बन गया है।
मौलाना मोहम्मद इमरान ख़ां नदवी अज़हरी का इल्मी मक़ाम नदवा से फज़ीलत और अज़हर से पहले हिन्दुस्तानी की हैसियत से फर्स्ट डिवीज़न और फर्स्ट पोज़ीशन मे डिग्री, फिर नदवा के प्रबंधक होने की वजह से पेहले ही से था। जब मौलाना इल्यास साहब से संबद्ध हो गये तो उन्होंने मौलाना इमरान ख़ां साहब से कहा कि मौलवी यूसुफ का तबलीग़ की तरफ ध्यान लगाओ इसलिये कि वह उस वक़्त पढ़ने लिखने के काम में लगे होने की वजह से इस तरफ ध्यान नहीं दे पा रहे थे। इस तरह मौलाना इमरान ख़ां साहब ने उनको इस तरफ लाने में अहम किरदार अदा किया। और जब वह इस तरफ आ गये तो फिर क्या था।
भोपाल इज्तिमा की विशेषताएं
भोपाल के तबलीग़ी इज्तिमा की विशेषता यह है कि शहर भोपाल, हिन्दुस्तान के बीच में है इसलिये यहां तक हर जगह से आना जाना और सफ़र करना आसान है। यहां का मौसम उत्तरी भारत के मुक़ाबले दिसंबर में ज़्यादा ठंडा नहीं होता और यहां लगातार इज्तिमा होने की वजह से आने वालों को वह सुविधाएं मिल जाती हैं जो हिन्दुस्तान के किसी इज्तिमा में कठिनाई से ही मिलेंगी दारूल उलूम ताजुल मसाजिद में हर निर्माण हर कार्य और हर योजना सालाना इज्तिमा को नज़र में रखते हुए बनती थी। इसी वजह से कम से कम सौ फ़्लश लेट्रीन बनाये गये जो इज्तिमा में ही काम आते थे। बोर्डिंग के कमरे छुट्टी होने की वजह से ख़ाली हो जाते थे। और ख़ास तौर पर पूर्व और पश्चिम और दक्षिण से आने वाले ख़ास लोगों को दिये जाते थे, ताकि उन्हें थोड़ा सा आराम और राहत मिल जाये। इस वजह से बड़े ज्ञानी, बिज़नेसमैन और नये लोग ज़्यादा आते, ताकि नये आने वालों को इस काम की तकलीफ़ों का सामना एकदम ना हो और उनका दिल काम की तरफ से हट ना जाये। यह बात भरोसे और यक़ीन के साथ कही जा सकती है कि महत्वपूर्ण तथा विश्ष्टि लोगों की इस इज्तिमा में सबसे ज़्यादा शिरकत होती थी।
हालांकि अब आने वाले ज़्यादा हैं और भीड़ की वजह से जगह कम पड़ने लगी थी। पहले इज्तिमा में कठिनाई से 500 लोग थे। 2001 ई० में जबकि ताजुल मसाजिद में आखि़री इज्तिमा हुआ कम से कम डेढ़ लाख लोग शामिल थे। शुरू के इज्तिमा में खाने का इंतेजाम इकट्ठा होता था। जिम्मेदार लोग फ़ीस लेकर खाना पकाते और सबको खिलाते थे, तो नाश्ते और खानों में 5, 6 घंटे लग जाते थे। इसलिये बाद में मैदान में होटल लगाने की अनुमति दी गई। इससे तबलीग़ के जिम्मेदारों और प्रबंधन करने वालों को बहुत सुविधा हो गई और उनको दूसरे महत्वपूर्ण कार्यों के लिये समय मिलने लगा। फिर यह तरीक़ा हर जगह इस्तेमाल होने लगा।
भोपाल इज्तिमा की बरकतें
भोपाल के इज्तिमा की बेपनाह बरकतें हैं। क्योंकि खुदा के हज़ारों लाखों बन्दे सिर्फ खुदा के नाम और ताल्लुक़ की वजह से दूर दराज़ के इलाकों से अपना ख़र्च करके और तकलीफें उठाते हुए यहां आते, खुदा से दुआएं करते और इस शहर और मुल्क और पूरी दुनिया की भलाई के लिये बेचैन नज़र आते हैं। इस वजह से खुदा का ख़ास करम इस शहर के वासियों पर है यहां इस इज्तिमा के कुछ फायदों के बारे में लिखा जा रहा है।
1- पहले इज्तिमा की बरकत तो यह हुई कि भोपाल शहर और पूर्व रियासत के मुसलमानों के उखड़े क़दम जम गये। देश छोड़कर चले जाने का इरादा यहां के लोगों ने दिलों से निकाल दिया। क्योंकि उस वक़्त यह बात फैलाई जा रही थी कि हिन्दुस्तान के तमाम मुसलमान यहां से चले गये। अब एक भी मुसलमान बाक़ी नहीं बचा। लेकिन जब लोगों ने हिन्दुस्तान के अलग अलग इलाक़ों से आए हुए 500 आदमियों को देखा तो हिम्मत आ गई। उनके लड़खड़ाते क़दम जम गये। वर्ना शायद कोई भी यहां ना रहता क्योंकि महत्वपूर्ण लोग यहां से जा रहे थे। ऐसे में मस्जिदों क़ब्रिस्तानों वग़ैरह का क्या होता। अल्लाह तआला ने इज्तिमा की बरकत से यह बहुत बड़ा फ़ायदा लोगों को पहुंचाया।
2- रियासत के ख़त्म होने के बाद इस इज्तिमा और इस संगठन ने उस दीनदारी के माहौल को कायम और बाक़ी रखने में बड़ा अहम रोल अदा किया जो भोपाल रियासत की बड़ी खूबी थी। श्रद्धा और विश्वास की सफ़ाई और पवित्रता में रियासते भोपाल का, उपमहाद्वीप में टोंक के सिवा किसी से मुक़ाबला नहीं था। ना यहां बिदअतें (धार्मिक सिद्धांतों और नियमों में नऐ नऐ आविष्कार) थीं। ना क़ब्र पूजा ना दीन के इल्म से बेख़बरी थी। रियासत के ख़त्म होने के बाद दावत के काम ने इस ज़िम्मेदारी को निभाने के बेहतरीन प्रयास किये।
3- तबलीग़ी इज्तिमा की बरक़त से इस शानदार मस्जिद के पूर्ण होने का प्रबंध खुदा ने किया। क्योंकि सभी शामिल होने वाले इस मस्जिद के हालात देखकर दुःखी होते और खुदा से दुआ करते। फिर जब हज़रत शाह मोहम्मद याकूब साहब मुजद्ददी की तवज्जो से मौलाना इमरान ख़ां ने मस्जिद पूर्ण करने की मुहिम शुरू की तो सबसे ज़्यादा मदद इसी संगठन से जुड़े हुए लोगों और हमदर्दों ने की।
4- इस इज्तिमा की बरकत से दारूल उलूम ताजुल मसाजिद का परिचय पूरी दुनिया में बहुत कम वक़्त में हो गया। आमतौर पर बरसों में कोई यूनीवर्सिटी या संस्थान मशहूर हो पाता है। लेकिन इस दारूल उलूम ने अपने हमदर्द और चाहने वाले बहुत जल्द तलाश कर लिये जिन्होंने तन मन धन से दारूल उलूम का साथ दिया और हर तरह की सहायता में आगे रहे।
5- इस इज्तिमा के कारण शासन प्रशासन की नज़र में दारूल उलूम का महत्व बढा। इज्तिमा और दारूल उलूम के सिलसिले में आने वाली कठिनाइयों पर विशेष ध्यान मिला। इज्तिमा के ईंट खेड़ी चले जाने के बाद भी अलहम्दुलिल्लाह कोई पेरशानी नहीं हुई।
6- शासन और दूसरे धर्मों के लोगों की नज़र में इज्तिमा की वजह से यह बात भी बड़ी अहम हो जाती है कि तीन दिन तक पुलिस की मदद के बिना सारे काम अच्छे तरीके़ से निपट जाते। लड़ाई झगड़े और चोरी वग़ैरह की कोई घटना नहीं होती। वर्ना आम हालात में तो पांच दस हज़ार के मजमे के लिये भी पुलिस को कानून व्यवस्था बनाने में कठिनाईयां आती हैं।