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मदरसों का इतिहास और उनकी उपयोगिता

पवित्रतम अल्लाह ने संपूर्ण विश्व में इस्लाम धर्म और उसकी शिक्षा के जीवित और निरंतर रहने की जो व्यवस्था ज्ञानियों वरिष्ठ जनों और इस्लामी मदरसों द्वारा की है वह इस्लाम धर्म के सत्य होने और इस धर्म के अपने मूल रूप में जीवित होने का ऐतिहासिक प्रमाण है।

अरब देश और अरब के बाहर के वह क्षेत्र जहां इस्लाम पहुंचा वहां मस्जिदों का निर्माण किया गया और इस्लामी मदरसे भी स्थापित हुए पवित्र कुरान और हदीस की शिक्षा की श्रृंखला भी निरंतर हुई 93 हिजरी में भारत में मोहम्मद बिन क़ासिम के प्रवेश के पश्चात मस्जिदों के निर्माण और इस्लामी मदरसे स्थापित करने का कार्य आरंभ हो गया था। फिर (416 हिज्री 1025 ई०) में सुल्तान महमूद ग़ज़नवी के प्रवेश के पश्चात से मुगल काल की समाप्ति अर्थात (1800 ई०) इसके पश्चात अंग्रज़ी शासन काल में और उसके पश्चात भारत की स्वतंत्रता से अब तक मस्जिदों का निर्माण और मदरसों की श्रृंखला किसी ना किसी रूप में निरंतर रही यह कार्य इस्लामी शासन और रियासतों द्वारा विशिष्ट जनों और ज्ञानियों तथा सामान्य मुसलमानों के अपने निजी और साझा प्रयासों से भी हुआ।

पवित्रतम अल्लाह का फरमान हैः “वही तो है जिसने अपने रसूल को सत्य मार्ग और सत्य धर्म के साथ भेजा ताकि उसे अन्य धर्मों पर वर्चस्व दे चाहे अनेकिश्वर वादियों को यह कितना ही नापसंद हो”। 

आदरणिय मोहम्मद (स०) ने फरमाया “मेरे अनुयायियों में सदैव एक दल अल्लाह के आदेशों का पालन करता रहेगा और उनको सहायता ना करने वाला और उनका विरोध करने वाला उनको कोई हानि नहीं पहुंचा सकेगा यहां तक के पवित्रतम अल्लाह का आदेश आ जाए और वह इस प्रकार अपने ढंग और चाल चलन पर डटे रहेंगे”।

भोपाल रियासत में भी रियासत की स्थापना से विलीनीकरण तक अधिकतर मस्जिदों का निर्माण, व्यवस्था और धार्मिक कार्य रियासत की ओर से होते रहे किंतु रियासत समाप्त होने के बाद इस्लामी शिक्षा जीवित और निरंतर रखने का दायित्व मुसलमानों पर आ गया। यह स्थितियां उत्पन्न होने के पश्चात ज्ञानियों और वरिष्ठ जनों की सलाह सहायता और सहमति से श्रीमान मौलाना मोहम्मद इमरान खान साहब की देख रेख में ताजुल मसाजिद में इस्लामी शिक्षा हेतु दारुल उलूम की स्थापना की गई।

भारत की इस वैभव शाली मस्जिद का निर्माण भोपाल रियासत की शासक नवाब शाहजहां बेगम ने 1887 ई० में ज्ञान और धर्म की सेवा की भव्य योजना के दृष्टिकोण से उच्च स्तर पर बड़े चाव से आरंभ किया था।यह कार्य उनकी मृत्यु 1901 ई० तक निरंतर होता रहा किंतु उनकी मृत्यु के पश्चात इसका निर्माण कार्य रुक गया था। उसके पश्चात नवाब सुल्तान जहां बेगम और नवाब हमीदुल्लाह खां के शासन काल में इस मस्जिद को पूर्ण नहीं किया जा सका।

अपितु पवित्रतम अल्लाह की कृपा से ताजुल मसाजिद के आसपास निर्मित इसकी दुकानों के किराए से आय होती है किंतु यह बात स्पष्ट है कि इस आय से दारुल उलूम का आधा खर्च ही पूर्ण हो पाता है बाक़ी आधा खर्च समाज के चंदे एवं सहयोग से पूर्ण किया जाता है इसलिए सहायता करने वाले हाथों की जरूरत सदैव रहती है और यह ज्ञान तथा धर्म की सेवा व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात भी निरंतर प्राप्त होने वाले पुण्य का एक अच्छा साधन है।

इस्लाम में  मदरसे ही वह स्थान हैं  जहां कुरान और हदीस की शिक्षा निरंतर होती रहती है कुरान और पैग़ंबरे इस्लाम हजरत मोहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम की जीवनी का प्रकाश फैलता है और मुस्लिम समाज भटकाव से बचता है पैग़ंबरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद सलल्लाहु अलैहि वसल्लम का कथन है मैंने तुम्हारे मध्य दो वस्तुएं छोड़ी हैं जब तक तुम इन दोनों को दृढ़ता से पकड़े रहोगे कदापि भटकोगे नहीं! वह दो वस्तुएं हैं पवित्रतम अल्लाह की किताब अथार्त  कुरान और उसके दूत के जीवन यापन के तौर तरीके।

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